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अनुयोगद्वारसूत्र यह समग्र भावप्रमाणनाम का कथन है। इस प्रकार से प्रमाणनाम, दस नाम और नामाधिकार की वक्तव्यता समाप्त हुई।
विवेचन— सूत्र में निरुक्तिजनाम की उदाहरण द्वार व्याख्या करके भावप्रमाण आदि नामाधिकार की समाप्ति क सूचन किया है।
क्रिया, कारक, भेद और पर्यायवाची शब्दों द्वारा शब्दार्थ के कथन करने को निरुक्ति कहते हैं। इस निरुक्ति से निष्पन्न नाम निरुक्तिजनाम कहलाता है। उदाहरण के रूप में प्रस्तुत महिष आदि नाम पृषोदरादिगण से सिद्ध हैं। सूत्रोक्त से तं भावप्पमाणे आदि पद उपसंहारार्थक हैं।
अब उपक्रम के तीसरे भेद प्रमाणाधिकार का वर्णन करते हैं। प्रमाण के भेद
३१३. से किं तं पमाणे ?
पमाणे चउब्विहे पण्णत्ते । तं जहा—दव्वप्पमाणे १ खेत्तप्पमाणे २ कालप्पमाणे ३ भावप्पमाणे ४ ।
[३१३ प्र.] भगवन् ! प्रमाण का स्वरूप क्या है ?
[३१३ उ.] आयुष्मन् ! प्रमाण चार प्रकार का प्रतिपादन किया गया है। वे चार प्रकार ये हैं—१. द्रव्यप्रमाण, २. क्षेत्रप्रमाण, ३. कालप्रमाण और ४. भावप्रमाण।
विवेचन— प्रमाण शब्द के अर्थ —प्रसंगानुसार प्रमाण शब्द का प्रयोग हमारे दैनिक कार्यकलापों में होता है और वह प्रयोग किस-किस आशय को स्पष्ट करने के लिए किया जाता है, इसका कुछ संकेत शब्दकोष में इस प्रकार से किया है—यथार्थज्ञान, यथार्थज्ञान का साधन, नाप, माप, परिमाण, संख्या, सत्यरूप से जिसको स्वीकार किया जाये, निश्चय, प्रतीति, मर्यादा, मात्रा, साक्षी आदि।
प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति-प्रमाण शब्द 'प्र' और 'माण' इन दो शब्दों से निष्पन्न है। 'प्र' उपसर्ग है और 'माण' माङ् धातु का रूप है। व्याकरण में माधतु अवबोध और मान अर्थ के लिए प्रयुक्त होती है। 'प्र' का प्रयोग अधिक स्पष्ट अर्थ का बोध कराने के लिए किया जाता है तथा मान का अर्थ होता है ज्ञान या माप, नाप आदि। शब्दशास्त्रियों ने प्रमाण शब्द की तीन प्रकार से व्युत्पत्ति की है—प्रमिणोति, प्रमीयतेऽनेन, प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम् जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा मान किया जाता है या प्रमितिमात्र—मान करना प्रमाण है। अर्थात् वस्तुओं के स्वरूप का जानना या मापना प्रमाण है। यहां यह जानना चाहिए कि प्रमिति प्रमाण का फल है। अतएव जब फल रूप प्रमिति को प्रमाण कहा जाता है तब उस प्रमिति के कारण-भूत अन्य साधनों को भी प्रमाण मान लिया जाता है।
__ प्रस्तुत सूत्र में प्रमाण शब्द के अतिविस्तृत अर्थ को लेकर उसके चार भेद किये हैं। इसमें दूसरे दार्शनिकों की तरह केवल प्रमेयसाधक तीन, चार या छह आदि प्रमाणों का समावेश नहीं है।
स्थानांगसूत्र में भी इन्हीं चार भेदों का नामोल्लेख है और वहां इन भेदों की गणना के अतिरिक्त विशेष कुछ १. चउव्विहे पमाणे पन्नत्ते तं जहा—दव्वप्पमाणे खेत्तप्पमाणे कालप्पमाणे भावप्पमाणे। -स्थानांग, स्थान ४