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________________ नामाधिकारनिरूपण वक्तव्यता की समाप्ति का संकेत किया है। प्रशस्त और अप्रशस्त भाव का आशय धर्मों को भाव कहते हैं। यह सभी द्रव्यों में पाये जाते हैं। अजीव द्रव्यों में तो अपने-अपने स्वभाव का परित्यग न करने के कारण प्रशस्त, अप्रशस्त जैसा कोई भेद नहीं है । यह भेद संसारस्थ जीवद्रव्य की अपेक्षा से है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि स्वाभाविक गुण शुभ और पवित्रता के हेतु होने से प्रशस्त और क्रोधादि परसंयोगज, विकारजनक एवं पतन के कारण होने से अप्रशस्त हैं। इन्हीं दोनों दृष्टियों और अपेक्षाओं को ध्यान रखकर भावसंयोगजनाम के प्रशस्त और अप्रशसत भेद किये हैं और सुगमता से बोध के लिए क्रमश: ज्ञानी, दर्शनी, क्रोधी, लोभी आदि उदाहरणों द्वारा उन्हें बतलाया है। प्रमाणनिष्पन्ननाम २०३ २८२. से किं तं पमाणेणं ? पमाणेणं चउव्विहे पण्णत्ते । तं जहा णामप्पमाणे १ ठवणप्पमाणे २ दव्वप्पमाणे ३ भावप्पमाणे ४ । [ २८२ प्र.] भगवन् ! प्रमाण से निष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [२८२ उ.] आयुष्मन् ! प्रमाणनिष्पन्न नाम के चार प्रकार हैं । यथा – १. नामप्रमाण से निष्पन्न नाम, २. स्थापनाप्रमाण से निष्पन्न नाम, ३. द्रव्यप्रमाण से निष्पन्न नाम, ४. भावप्रमाण से निष्पन्न नाम । विवेचन — इस सूत्र में प्रमाणनिष्पन्न नाम का भेदों द्वारा निरूपण किया गया है। जिसके द्वारा वस्तु का निर्णय किया जाता है अर्थात् जो वस्तुस्वरूप के सम्यग् निर्णय का कारण हो उसे प्रमाण कहते हैं। इससे निष्पन्न नाम को प्रमाणनिष्पन्ननाम कहते हैं । ज्ञेय वस्तु नाम आदि चार प्रकारों द्वारा प्रमाण की विषय बनने से प्रमाणनाम के नाम, स्थापना आदि चार प्रकार हो जाते हैं। उनका क्रमानुसार आगे वर्णन किया जा रहा है। नामप्रमाणनिष्पन्न नाम २८३. से किं तं नामप्पमाणे ? नामप्पमाणे जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा पमाणे त्ति णामं कज्जति । से तं णामप्पमाणे । [२८३ प्र.] भगवन् ! नामप्रमाणनिष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [ २८३ उ.] आयुष्मन् ! नामप्रमाणनिष्पन्न नाम का स्वरूप इस प्रकार है— किसी जीव या अजीव का अथवा जीवों या अजीवों का, तदुभय (जीवाजीव) का अथवा तदुभयों (जीवाजीवों) का 'प्रमाण' ऐसा जो नाम रख लिया जाता है, वह नामप्रमाण और उससे निष्पन्न नाम नामप्रमाणनिष्पन्ननाम कहलाता है । विवेचन — सूत्र में नामप्रमाणनिष्पन्ननाम का स्वरूप स्पष्ट किया है। वस्तु का परिच्छेद — पृथक् पृथक् रूप में वस्तु का बोध कराने का कारण नाम है। लोकव्यवहार चलाने और प्रत्येक वस्तु की कोई न कोई संज्ञा निर्धारित करने का मुख्य आधार नाम है। इसका क्षेत्र इतना व्यापक है कि सभी जीव, अजीव पदार्थ इसके वाच्य हैं। 'प्रमाण' ऐसा नाम केवल नामसंज्ञा के कारण ही होता है। इसमें वस्तु के गुण
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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