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________________ अनुयोगद्वारसूत्र शरीर की ऊंचाई एक हाथ की रह जाती है। शरीर में आठ पसलियां होती हैं । अपरिमित आहार की इच्छा होती है। रात्रि में शीत और दिन में ताप अत्यन्त प्रबल होता है । मनुष्य बिलों में रहते हैं। गंगा-सिन्धु नदियां सांप के समान गति से बहती हैं। गाड़ी का आधा पहिया डूबे, इतनी उनकी गहराई होती है। मछली आदि जलचर जीव बहुत होते हैं। जिन्हें मनुष्य पकड़कर नदी की रेत में गाड़ देते हैं और शीत व गरमी के योग से पक जाने पर लूटकर खा जाते हैं। मृतक मनुष्य की खोपड़ी में पानी पीते हैं। जानवर मरी हुई मछलियों आदि की हड्डियां खाकर जीवनयापन करते हैं। मनुष्य दीन, हीन, दुर्जन, रुग्ण, अपवित्र, आचार-विचार से हीन होते हैं। धर्म से हीन वे दुःख ही दुःख में अपनी आयु व्यतीत करते हैं। छह वर्ष की आयु वाली स्त्री संतान का प्रसव करती है। इन सब कारणों से इस आरे का नाम दुषमदुषम है। आराओं का यह क्रम अवसर्पिणीकाल की अपेक्षा से है। अवसर्पिणीकाल के समाप्त होने पर उत्सर्पिणीकाल आरंभ होता है । वह भी इन्हीं छह आरों में विभक्त है, किन्तु आरों का क्रम विपरीत होता है। अर्थात् उत्सर्पिणी का प्रथम आरा दुषमदुषम है और छठा सुषम- सुषम । इनका स्वरूप पूर्वोक्त ही है। भावसंयोगनिष्पन्ननाम २०२ २७९. से किं तं भावसंजोगे ? भावसंजोगे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा— पसत्थे य १ अपसत्थे य २ । [२७९ प्र.] भगवन् ! भावसंयोगनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप ? [२७९ उ.] आयुष्मन् ! भावसंयोगजनाम के दो प्रकार हैं। यथा—१. प्रशस्त भावसंयोगज, २. अप्रशस्तभावसंयोगज । २८०. से किं तं पसत्थे ? पसत्थे नाणेणं नाणी, दंसणेणं दंसणी, चरित्तेणं चरित्ती । से तं सत्थे । [ २८० प्र.] भगवन् ! प्रशस्त भावसंयोगनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [ २८० उ. ] आयुष्मन् ! (ज्ञान, दर्शन आदि प्रशस्त (शुभ) भाव रूप होने से) ज्ञान के संयोग से ज्ञानी, दर्शन के संयोग से दर्शनी, चारित्र के संयोग से चारित्री नाम होना प्रशस्तभावसंयोगनिष्पन्न नाम है । २८१. से किं तं अपसत्थे ? अपसत्थे कोहेणं कोही, माणेणं माणी, मायाए मायी, लोभेणं लोभी । से तं अपसत्थे । से तं भावसंजोगे । से तं संजोगेणं । [ २८१ प्र.] भगवन् ! अप्रशस्त भावसंयोगनिष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [ २८१ उ.] आयुष्मन् ! (क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अप्रशस्त (अशुभ) भाव हैं। अतः इन भावों के संयोग से) जैसे क्रोध के संयोग से क्रोधी, मान के संयोग से मानी, माया के संयोग से मायी और लोभ के संयोग से लोभी नाम होना अप्रशस्त भावसंयोगनिष्पन्न नाम हैं। इसी प्रकार से भावसंयोगजनाम का स्वरूप और साथ ही संयोगनिष्पन्न नाम की वक्तव्यता जानना चाहिए । विवेचन — सूत्र में भावसंयोगजनाम का प्रशस्त और अप्रशस्त भेद की अपेक्षा वर्णन करके संयोगनाम की
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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