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________________ नामाधिकारनिरूपण २०१ एक पल्योपम आयुष्य और शरीर के चौंसठ करंडक (पसलियां) रह जाते हैं। एक दिन के अंतर से आहार की इच्छा होती है। पृथ्वी का स्वाद गुड़ जैसा रह जाता है । मृत्यु के छह माह पूर्व युगलिनी पुत्र-पुत्री के जोड़े को जन्म देती है। उन्यासी दिन तक पालन-पोषण करने के बाद वह जोड़ा स्वावलंबी हो जाता है। शेष कथन पहले के समान जानना चाहिए। इन तीन आरों के तिर्यंच भी युगलिया होते हैं। इस आरे के कालमान में दो विभागों के बीतने पर कालस्वभाव से, कल्पवृक्षों की फलदायिनी शक्ति.हीन होते जाने से युगल मनुष्यों में परस्पर कलह होने लगता है। इस कलह का अंत करने के लिए क्रम से पन्द्रह कुलकरों की उत्पत्ति होती है। वे लोकव्यवस्था करते हैं। कल्पवृक्षों की फलदायिनी शक्ति के क्रमशः क्षीण होते जाने पर भी जैसे-तैसे उन्हीं के आधार से जीवननिर्वाह होते रहने से असि-मसि आदि के द्वारा आजीविका अर्जित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसलिए पहले और दूसरे आरे के समान इस आरे में अकर्मभूमिक स्थिति बनी रहती है और युगल रूप में उत्पन्न होने से मनुष्य युगलिया कहलाते हैं। ___ इस तीसरे आरे के समाप्त होने में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढे आठ मास शेष रह जाते हैं तब (अयोध्या नगरी में पन्द्रहवें कुलकर के यहां) प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है। वे लोकव्यवस्था स्थापित करने के लिए असि, मसि आदि द्वारा आजीविका अर्जित करने के उपाय बताते हैं । पुरुषों को बहत्तर और स्त्रियों को चौंसठ कलायें सिखाते हैं। राज्यव्यवस्था करते हैं। फिर राज्यवैभव को छोड़कर संयम ग्रहण करते हैं और केवलज्ञान प्राप्त होने पर तीर्थ की स्थापना करते हैं। दुषमसुषम– तीसरा आरा समाप्त होने पर वियालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोडी सागरोपम का चौथा आरा प्रारंभ होता है। इसमें दुःख अधिक और सुख थोड़ा होता है। पहले की अपेक्षा वर्णादि की, शुभ पुद्गलों की अनन्तगुण हानि हो जाती है। घटते-घटते देहमान पांच सौ धनुष और आयुष्य एक करोड़ पूर्व का रह जाता है। शरीर में बत्तीस पसलियां रह जाती हैं। दिन में एक बार भोजन की इच्छा होती है। छहों संहननों, छहों संस्थानों वाले और पांचों गतियों (संसार की चार गति, एक मुक्ति गति) में जाने वाले मनुष्य होते हैं । तेईस तीर्थंकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव, नौ प्रतिवासुदेव भी इसी आरे में होते हैं। दुषम— चौथे आरे के समाप्त होने पर इक्कीस हजार वर्ष कालमान वाला पांचवां आरा प्रारंभ होता है। चौथे आरे की अपेक्षा वर्णादि और शुभ पुद्गलों में अनन्तगुणी हीनता हो जाती है। आयु घटते-घटते १२५ वर्ष की, शरीर-अवगाहना सात हाथ की और शरीर में पसलियां सोलह रह जाती हैं। दिन में दो बार आहार करने की इच्छा होती है। पांचवें आरे में केवलज्ञान, जिनकल्पी मुनि आदि दस बातों का अभाव हो जाता है। पापाचार की वृद्धि होती जाती है। पाखंडियों की पूजा होती है, धर्म के प्रति रुचि का अभाव बढ़ता जाता है आदि। इन सब कारणों से इस आरे को दुषम कहते हैं। दुषमदुषम— पांचवें आरे के पूर्ण होने पर इक्कीस हजार वर्ष का यह छठा आरा प्रारंभ होता है । इस आरे में पहले की अपेक्षा वर्ण आदि में शुभ पुद्गलों की अनन्तगुणी हानि हो जाती है। आयु घटते-घटते बीस वर्ष की और
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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