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________________ १९० अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन— यहां हास्यरस का स्वरूप बताया है। हास्यरस रूप, वय, वेश और भाषा की विपरीतता रूप विडंबना से उत्पन्न होता है। पुरुष द्वारा स्त्री का या स्त्री द्वारा पुरुष का रूप धारण करना रूप की विपरीतता है। इसी प्रकार वय आदि की विपरीतता-विडम्बना के विषय में जान लेना चाहिए। जैसे कोई तरुण वृद्ध का रूप बनाए, राजपुत्र वणिक् का रूप धारण करे आदि। इस प्रकार की विपरीतताओं से हास्यरस की उत्पत्ति होती है। हंसते समय मुख का खिल जाना, खिल-खिलाना आदि हास्यरस के चिह्नों को तो सभी जानते हैं। करुणरस (९) पियविप्पयोग-बंध-वह-वाहि-विणिवाय-संभमुप्पन्नो । सोचिय-विलविय-पव्वाय-रुन्नलिंगो रसो कलुणो ॥ ७८॥ कलुणो रसो जहा पज्झातकिलामिययं बाहागयपप्पुयच्छियं बहुसो । तस्स वियोगे पुत्तिय ! दुब्बलयं ते मुहं जायं ॥ ७९॥ [२६२-९] प्रिय के वियोग, बंध, वध, व्याधि, विनिपात, पुत्रादि-मरण एवं संभ्रम-परचक्रादि के भय आदि से करुणरस उत्पन्न होता है। शोक, विलाप, अतिशय, म्लानता, रुदन आदि करुणरस के लक्षण हैं । ७८ करुणरस इस प्रकार जाना जा सकता है हे पुत्रिके ! प्रियतम के वियोग में उसकी वारंवार अतिशय चिन्ता से क्लान्त-मुझया हुआ और आंसुओं से व्याप्त नेत्रों वाला तेरा मुख दुर्बल हो गया है । ७९ विवेचन– करुणरस के स्वरूपवर्णन के प्रसंग में उसके शोक, विलाप, मुखशुष्कता, रोना आदि चिह्न बताये गये हैं, जिन्हें उदाहरण में कारण सहित स्पष्ट किया है। प्रशान्तरस (९) निहोसमणसमाहाणसंभवो जो पसंतभावेणं । अविकारलक्खणो सो रसो पसंतो त्ति णायव्वो ॥८०॥ पसंतो रसो जहा सब्भावनिव्विकारं उवसंत-पसंत-सोमदिट्ठियं । ही ! जह मुणिणो सोहति मुहकमलं पीवरसिरीयं ॥८१॥ [२६२-१०] निर्दोष (हिंसदि दोषों से रहित), मन की समाधि (स्वस्थता) से और प्रशान्त भाव से जो उत्पन्न होता है तथा अविकार जिसका लक्षण है, उसे प्रशान्तरस जानना चाहिए। ८० प्रशान्तरस सूचक उदाहरण इस प्रकार है—सद्भाव के कारण निर्विकार, रूपादि विषयों के अवलोकन की उत्सुकता के परित्याग से उपशान्त एवं क्रोधादि दोषों के परिहार से प्रशान्त, सौम्य दृष्टि से युक्त मुनि का मुखकमल वास्तव में अतीव श्रीसम्पन्न होकर सुशोभित हो रहा है। ८१ विवेचन— यहां सूत्रकार ने नव रसों के अंतिम भेद प्रशान्तरस का स्वरूप बताया है। क्रोधादि कषायों रूप
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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