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नामाधिकारनिरूपण
बीभत्सरस (७)
असुइ-कुणव-दुइंसणसंजोगब्भासगंधनिप्फण्णो ।
निव्वेयऽविहिंसालक्खणो रसो होइ बीभत्सो ॥ ७४॥ बीभत्सो रसो जहा
असुइमलभरियनिज्झर सभावदुग्गंधि सव्वकालं पि ।
धण्णा उ सरीरकलिं बहुमलकलुसं विमुचंति ॥ ७५ ॥ ___ [२६२-७] अशुचि-मल, मूत्रादि, कुणप-शव, मृत शरीर, दुर्दर्शन–लार आदि से व्याप्त घृणित शरीर को बारंबार देखने रूप अभ्यास से या उसकी गंध से बीभत्सरस उत्पन्न होता है। निर्वेद और अविहिंसा बीभत्सरस के लक्षण हैं। ७४
बीभत्सरस का उदाहरण इस प्रकार है
अपवित्र मल से भरे हुए झरनों (शरीर के छिद्रों) से व्याप्त और सदा सर्वकाल स्वभावत: दुर्गन्धयुक्त यह शरीर सर्व कलहों का मूल है। ऐसा जानकर जो व्यक्ति उसकी मूर्छा का त्याग करते हैं, वे धन्य हैं।
विवेचन— सूत्रकार ने बीभत्सरस का स्वरूप बतलाया है और उदाहरण में रूप के शरीर का उल्लेख किया है। शरीर की बीभत्सता को सभी जानते हैं
पल-रुधिर-राध-मल थैली कीकस वसादि तें मैली । अतएव इससे अधिक और दूसरी घृणित वस्तु क्या हो सकती है ?
निर्वेद और अविहिंसा बीभत्सरस के लक्षण बताये हैं। निर्वेद अर्थात् उद्वेग, मन में ग्लानि, संकल्पविकल्प उत्पन्न होना। शरीर आदि की असारता को जानकर हिंसादि पापों का त्याग करना अविहिंसा है। इन दोनों को उदाहरण में घटित किया है कि यह शरीर यथार्थ में उद्वेगकारी होने से भाग्यशाली जन उसके ममत्व को त्याग कर, हिंसादि पापों से विरत होकर आत्मरमणता की ओर अग्रसर होते हैं। हास्यरस (८) रूव - वय - वेस-भासाविवरीयविलंबणासमुप्पन्नो ।
हासो मणप्पहासो पकासलिंगो रसो होति ॥ ७६॥ हासो रसो जहा
पासुत्तमसीमंडियपडिबुद्धं देयरं पलोयंती ।
ही ! जह थणभरकंपणपणमियमज्झा हसति सामा ॥ ७७॥ [२६२-८] रूप, वय, वेष और भाषा की विपरीतता से हास्यरस उत्पन्न होता है। हास्यरस मन को हर्षित करने वाला है और प्रकाश मुख, नेत्र आदि का विकसित होना. अट्टहास आदि उसके लक्षण हैं। ७६
हास्य रस इस प्रकार जाना जाता है
प्रातः सोकर उठे, कालिमा से काजल की रेखाओं से मंडित देवर के मुख को देखकर स्तनयुगल के भार से नमित मध्यभाग वाली कोई युवती (भाभी) ही-ही करती हंसती है। ७७