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________________ १८८ अनुयोगद्वारसूत्र भृकुटियों से तेरा मुख विकराल बन गया है, तेरे दांत होठों को चबा रहे हैं, तेरा शरीर खून से लथपथ हो रहा है, तेरे मुख से भयानक शब्द निकल रहे हैं, जिससे तू राक्षस जैसा हो गया है और पशुओं की हत्या कर रहा है। इसलिए अतिशय रौद्ररूपधारी तू साक्षात रौद्ररस है । ७१ विवेचन— यहां रौद्ररस का लक्षण और उन लक्षणों से युक्त व्यक्ति को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के रूप में प्रस्तुत रूपक से स्पष्ट है कि हिंसा में प्रवृत्त व्यक्ति के परिणाम रौद्र होते हैं और भृकुटि आदि के द्वारा ही उन परिणामों की रौद्ररूपता आदि का बोध होता है। यद्यपि भयजनक पिशाचादि के रूप के दर्शन, स्मरण आदि से संमोहादि लक्षण वाले भयानकरस की उत्पत्ति होती है, तथापि उनके रौद्रपरिणामों का बोध कराने का कारण होने से इसमें रौद्रता की विवक्षा की है। __शब्दार्थ- संमोह—विवेकशून्यता-विवेकविकलता, संभम संभ्रम व्याकुलता, भिउडी भ्रकुटि— भौंहों को ऊपर चढ़ाना । विडंबिय–विडम्बित—विकराल, विकृत । रुहिरमोकिण्ण-रुधिराकीर्ण खून से लथपथ। असुरणिभा असुरनिभ –असुर-राक्षस के जैसे (हो रहे हो)। भीमरसिय—भीमरसित —भयोत्पादक शब्द बोलने वाला। अतिरोद्दो—अतिरौद्र—अतिशय रौद्र रूपधारी। वीडनकरस (६) विणयोवयार-गुज्झ-गुरुदारमेरावतिक्कमुप्पण्णो । वेलणओ नाम रसो लज्जा-संकाकरणलिंगो ॥७२॥ वेलणओ रसो जहा किं लोइयकरणीओ लज्जणियतरं ति लजिया होमो । वारिजम्मि गुरुजणो परिवंदइ जं वहूपोत्तं ॥ ७३॥ । [२६२-६] विनय करने योग्य माता-पिता आदि गुरुजनों का विनयन करने से, गुप्त रहस्यों को प्रकट करने से तथा गुरुपत्नी आदि के साथ मर्यादा का उल्लंघन करने से वीडनकरस उत्पन्न होता है। लज्जा और शंका उत्पन्न होना, इस रस के लक्षण हैं । ७२, यथा—(कोई वधू कहती है—) इस लौकिक व्यवहार से अधिक लज्जास्पद अन्य बात क्या हो सकती है—मैं तो इससे बहुत लजाती हूं-मुझे तो इससे बहुत लज्जा-शर्म आती है कि वर-वधू का प्रथम समागम होने पर गुरुजन—सास आदि वधू आदि द्वारा पहने वस्त्र की प्रशंसा करते हैं । ७३ - विवेचन- वीडनकरस का सोदाहरण लक्षण बताया है कि लोकमर्यादा और आचारमर्यादा के उल्लंघन से वीडनकरस की उत्पत्ति होती है और लज्जा आना एवं आशंकित होना उसके ज्ञापक चिह्न हैं। लज्जा अर्थात् कार्य करने के बाद मस्तक का नमित हो जाना, शरीर का संकुचित हो जाना और दोष प्रकट न हो जाए, इस विचार से मन का दोलायमान बना रहना। उदाहरण अपने-आप में स्पष्ट है। किसी क्षेत्र या किसी काल में ऐसी रूढ़ि-लोकपरम्परा रही होगी कि नववधू को अक्षतयोनि प्रदर्शित करने के लिए सुहागरात के बाद उसके रक्तरंजित वस्त्रों का प्रदर्शन किया जाता था। परन्तु है वह अतिशय लज्जाजनक।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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