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________________ नामाधिकारनिरूपण रूप से एकवचन और बहुवचन रूप संज्ञानामों के साथ संयोजित होते हैं। इस प्रकार से अष्टनाम की प्ररूपणा का आशय जानना चाहिए। नवनाम २६२. (१) से किं तं नवनामे ? नवनामे णव कव्वरसा पण्णत्ता । तं जहा वीरो १ सिंगारो २ अब्भुओ य ३ रोद्दो य ४ होइ बोधव्यो । वेलणओ ५ बीभच्छो ६ हासो ७ कलुणो ८ पसंतो य ९ ॥६३॥ [२६२-१ प्र.] भगवन् ! नवनाम का क्या स्वरूप है ? [२६२-१ उ.] आयुष्मन् ! काव्य के नौ रस नवनाम कहलाते हैं। जिनके नाम हैं १. वीररस, २. शृंगाररस, ३. अद्भुतरस, ४. रौद्ररस, ५. वीडनकरस, ६. बीभत्सरस, ७. हास्यरस, ८. कारुण्यरस और ९. प्रशांतरस, ये नवरसों के नाम हैं। ६३ विवेचन— सूत्र में नौ काव्यरसों के नाम गिनाये हैं। काव्यरसों की व्याख्या- कवि के कर्म को काव्य और काव्य में उपनिबद्ध रस को काव्यरस कहते हैं। विभिन्न सहकारी कारणों से अन्तरात्मा में उत्पन्न उल्लास या विकार की अनुभूति रस कहलाती है। . रससिद्धान्त मानने का कारण- रससिद्धान्त मानव-मन सम्बन्धी गहन अनुशीलन का परिचायक है। सौन्दर्यविषयक धारणाओं का सार-सर्वस्व है। रस-परिकल्पना काव्यास्वाद से संबद्ध है। आस्वादन के क्षणों में आस्वादक जब अनुभूति की गहनता में एक अखंड आनन्दोपलब्धि में लीन होता है तब वह उस आस्वाद या आनन्द का कोई न कोई नाम देना चाहता है। बस यही दृष्टि रस नामकरण की हेतु है और इसे काव्यशास्त्र में सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित किया है। रसों की संख्या- सामान्यतः अनुभूति के दो प्रकार हैं—सुखात्मक और दुःखात्मक। अतः स्थूल रूप में रस के दो भेद होंगे। लेकिन ये अनुभूतियां इतनी अधिक हैं, इतने प्रकार की हैं कि उन्हें सुख या दुःख में समायोजित नहीं किया जा सकता है। इसीलिए आचार्यों ने अनुभूतियों की भिन्नताओं का बोध कराने के लिए रस के भेद करके उनके पृथक्-पृथक् नामकरण किये और रससंख्या के संदर्भ में परम्परित दृष्टि का अतिक्रमण करके अनेक नवीन रसों का भी नामोल्लेख किया। लेकिन अंत में रसभेद के रूप में इन नौ नामों को स्वीकार किया गया है शृंगारहास्यकरुणा रौद्रवीरभयानकाः । बीभत्साऽद्भुतशान्ताश्च नव नाटये रसाः स्मृताः ॥ इन नौ भेदों में से कुछ विद्वानों ने करुण, रौद्र, भयानक और बीभत्स इन चार रसों को दुःखात्मक तथा श्रृंगार, हास्य, वीर, अद्भुत और शान्त इन पांच को सुखात्मक कहा है। लेकिन साहित्यशास्त्रियों ने इस मत को ग्राह्य नहीं माना। उनकी युक्ति है—रस की प्रक्रिया में दुःख का अंश रहने पर भी परिणति में कोई भी रस दुःखात्मक नहीं है।'
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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