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________________ नामाधिकारनिरूपण १८३ १. निर्देश-प्रतिपादक अर्थ में प्रथमा विभक्ति होती है। २. उपदेशक्रिया के प्रतिपादन में द्वितीया विभक्ति होती है। ३. क्रिया के प्रति साधकतम कारण के प्रतिपादन में तृतीया विभक्ति होती है। ४. संप्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। ५. अपादान (पृथक्ता) बताने के अर्थ में पंचमी विभक्ति होती है। ६. स्व-स्वामित्वप्रतिपादन करने के अर्थ में षष्ठी विभक्ति होती है। ७. सन्निधान (आधार) का प्रतिपादन करने के अर्थ में सप्तमी विभक्ति होती है। ८. संबोधित, आमंत्रित करने के अर्थ में अष्टमी विभक्ति होती है। ५७, ५८ विवेचन— इन दो गाथाओं में अष्टनाम के रूप में आठ वचनविभक्तियों का निरूपण किया है। वचनविभक्ति- जो कहे जाते हैं वे वचन हैं और विभक्ति अर्थात् कर्ता, कर्म आदि रूप अर्थ जिसके द्वारा प्रगट किया जाता है। अतः वचनों-पदों की विभक्ति को वचनविभक्ति कहते हैं। यहां वचनविभक्ति से सुवन्त (संज्ञा, सर्वनाम) रूप प्रथमान्त आदि पदों का ग्रहण जानना चाहिए, तिङ्गन्त रूप आख्यात विभक्तियों का नहीं। यथाक्रम आठ वचनविभक्तियों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है १. निद्देसे पढमा– प्रतिपादक अर्थमात्र के प्रतिपादन करने को निर्देश कहते हैं। प्रतिपादक अर्थ के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं। जिनमें जाति, व्यक्ति, लिंग, संख्या, कारक इन पांच को प्रतिपादक के अर्थ में स्वीकार किया है और इनमें भी जाति एवं व्यक्ति रूप अर्थ मुख्य है। इसका निर्देश करने में 'सु, औ, जस्' यह प्रथमा विभक्ति होती हैं। २. बितिया उवदेसणे- उपदेश क्रिया से व्याप्त कर्म के प्रतिपादन में द्वितीया विभक्ति होती है। क्रिया में प्रवर्तित कराए जाने की इच्छा उत्पन्न करने को उपदेश कहते हैं और जिस पर क्रिया का फल पड़े वह कर्म है। इसकी बोधक 'अम्, औट, शस्' यह विभक्ति हैं। ३. तइया करणम्मि- क्रियाफल की सिद्धि में सबसे अधिक उपकारक, सहायक को करण कहते हैं। इस करण में 'टा, भ्याम्, भ्यस्' विभक्ति होती हैं। ४. चउत्थी संपयावणे— जिसके लिए क्रिया होती है, उसे सम्प्रदान कहते हैं और इस संप्रदान में 'डे, भ्याम्, भ्यस्' विभक्ति होती हैं। ५. पंचमी य अपायाणे- जिससे अलग होने या पृथक्ता का बोध हो, उसे अपादान कहते हैं । इस अपादान को बताने के लिए 'ङसि, भ्याम्, भ्यस्' यह पंचमी विभक्ति होती हैं। ६. छट्ठी सस्सामिवायणे— स्व-स्वामित्व सम्बन्ध का प्रतिपादन करने में 'डस्, ओस्, आम्' यह षष्ठी विभक्ति होती हैं। ७. सत्तमी सण्णिधाणत्थे– सन्निधान अर्थात् क्रिया करने के आधार या स्थान का बोध कराने में 'ङि, ओस्, सुप' यह सप्तमी विभक्ति होती हैं। ८. अट्ठमाऽऽमंतणी भवे किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के अर्थ में सम्बोधनरूप आठवीं
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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