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अनुयोगद्वारसूत्र ६. समतालप्रत्युत्क्षेप- जिस गीत में (हस्त) ताल, वाद्य-ध्वनि और नर्तक का पादक्षेप सम हो अर्थात् एक दूसरे से मिलते हों।
७. सप्तस्वरसीभर— जिसमें (षड्ज) आदि सातों स्वर तंत्री आदि वाद्यध्वनियों के अनुरूप हों। अथवा वाद्यध्वनियां गीत के स्वरों के समान हों। ४९ (१० ऊ) अक्खरसमं पयसमं तालसमं लयसमं गहसमं च ।
निस्ससिउस्ससियसमं संचारसमं सरा सत्त ॥ ५० ॥ [२६०-१०-ऊ] (प्रकारान्तर से) सप्तस्वरसीभर की व्याख्या इस प्रकार है१. अक्षरसम— जो गीत ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत और सानुनासिक अक्षरों के अनुरूप ह्रस्वादि स्वरयुक्त हो। २. पदसम- स्वर के अनुरूप पदों और पदों के अनुरूप स्वरों के अनुसार गाया जाने वाला गीत। ३. तालसम— तालवादन के अनुरूप स्वर में गाया जाने वाला गीत। ४. लयसम— वीणा आदि वाद्यों की धुनों के अनुसार गाया जाने वाला गीत। ५. ग्रहसम- वीणा आदि द्वारा गृहीत स्वरों के अनुसार गाया जाने वाला गीत। ६. निश्वसितोच्छ्वसितसम- सांस लेने और छोड़ने के क्रमानुसार गाया जाने वाला गीत। ७. संचारसम— सितार आदि वाद्यों के तारों पर अंगुली के संचार के साथ गाया जाने वाला गीत । इस प्रकार गीत, स्वर, तंत्री आदि के साथ सम्बन्धित होकर सात प्रकार का हो जाता है। ५०
विवेचन— यद्यपि षड्ज आदि के भेद से सप्त स्वरों के नाम प्रसिद्ध हैं। लेकिन अक्षरसम आदि इस गाथा द्वारा पुनः सप्त स्वरों के नाम बताने का कारण यह है कि षड्ज आदि नाम तो कंठोद्गत ध्वनिवाचक हैं और यहां लिपि रूप अक्षरों की अपेक्षा है। इसलिए अनुयोगद्वार मलधारीया वृत्ति में इस गाथा को 'सत्तस्सरसीभरं'–सप्तस्वर सीभरं पद का विशेषण मानते हुए कहा है-'.....सप्तस्वरासीभरंति—अक्षरादिभिसमायत्र तत्सप्तस्वरसीभरमिति, ते चामी सप्तस्वरः—अक्खरसमं.....।' (१० ए) निद्दोसं सारवंतं च हेउजुत्तमलंकियं ।
___उवणीयं सोवयारं च मियं महुरमेव य ॥ ५१॥ [२६०-१०-ए] गेय पदों के आठ गुण इस प्रकार भी हैं१. निर्दोष— अलीक, उपघात आदि बत्तीस दोषों से रहित होना। २. सारवंत- सारभूत विशिष्ट अर्थ से युक्त होना। ३. हेतुयुक्त- अर्थसाधक हेतु से संयुक्त होना। ४. अलंकृत– काव्यगत उपमा-उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों से युक्त होना। ५. उपनीत- उपसंहार से युक्त होना। ६. सोपचार- अविरुद्ध अलजनीय अर्थ का प्रतिपादन करना। ७. मित- अल्पपद और अल्पअक्षर वाला होना। ८. मधुर- सुश्राव्य शब्द, अर्थ और प्रतिपादन की अपेक्षा प्रिय होना। ५१