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________________ नामाधिकारनिरूपण १७९ १. भीतदोष- डरते हुए गाना। २. द्रुतदोष– उद्वेगवश शीघ्रता से गाना। ३. उत्पिच्छदोष— श्वास लेते हुए या जल्दी-जल्दी गाना। . ४. उत्तालदोष— तालविरुद्ध गाना। ५. काकस्वरदोष- कौए के समान कर्णकटु स्वर में गाना। ६. अनुनासदोष- नाक से स्वरों का उच्चारण करते हुए गाना। ४७ विवेचन- गाथार्थ सुगम है। यह छह दोष गायक को उपहासनीय बना देते हैं। पाठान्तर के रूप में 'उप्पिच्छं' के स्थान पर 'रहस्सं' पद भी प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है अक्षरों को लघु बनाकर गाना। गीत के आठ गुण (१० ई) पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहेवमविघुठं । ___ महुरं समं सुललियं अट्ठ गुणा होति गीयस्स ॥४८॥ [२६०-१०-ई] गीत के आठ गुण इस प्रकार हैं१. पूर्णगुण- स्वर के आरोह-अवरोह आदि समस्त स्वरकलाओं से परिपूर्ण गाना। २. रक्तगुण— गेय राग से भावित होकर गाना। . ३. अलंकृतगुण - विविध विशेष शुभ स्वरों से संपन्न होकर गाना। ४. व्यक्तगुण— गीत के बोलों स्वर-व्यंजनों का स्पष्ट रूप से उच्चारण करके गाना। ५. अविघुष्टगुण— विकृति और विशृंखलता से रहित नियत और नियमित स्वर से गाना—चीखते-चिल्लाते हुए न गाना। ६. मधुरगुण— कर्णप्रिय मनोरम स्वर से कोयल की भांति गाना। ७. समगुण- सुर-ताल-लय आदि से समनुगत-संगत स्वर में गाना। ८. सुललितगुण- स्वरघोलनादि के द्वारा ललित श्रोत्रेन्द्रियप्रिय सुखदायक स्वर में गाना। ४८ (१० उ) उर-कंठ-सिरविसुद्धं च गिज्जते मउय-रिभियपदबद्धं । समताल पडुक्खेवं सत्तस्सरसीभरं गीयं ॥ ४९॥ [२६०-१०-उ] गीत के आठ गुण और भी हैं, जो इस प्रकार हैं१. उरोविशुद्ध-जो स्वर उरस्थल में विशाल होता है। २. कंठविशुद्ध— नाभि से उत्थित जो स्वर कंठस्थल में व्याप्त होकर स्फुट रूप से व्यक्त होता है । अर्थात् जो स्वर कंठ में नहीं फटता। ३. शिरोविशुद्ध - जो स्वर शिर से उत्पन्न होकर भी नासिका के स्वर से मिश्रित नहीं होता। ४. मृदुक— जो गीत मृदु-कोमल स्वर में गाया जाता है। ५. पदबद्ध गीत को विशिष्ट पदरचना से निबद्ध करना।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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