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अनुयोगद्वारसूत्र चाहिए कि यह मनुष्य उपशांतक्रोधादि कषाय वाला होकर क्षायिक सम्यग्दृष्टि है। मनुष्य से मनुष्यगति को ग्रहण किया है और मनुष्यगतिनामकर्म के उदय से मनुष्य होने से गति औदयिकभाव है। उपशांतक्रोधादि कषाय कहने से औपशमिकभाव तथा क्षायिकसम्यक्त्व से क्षायिकभाव घटित होता है। इसी प्रकार से शेष दो भंगों में से पहले औदयिक-औपशमिक, क्षायोपशमिक-सन्निपातिकभाव में मनुष्य, उपशांतकषाय, पंचेन्द्रिय तथा दूसरे औदयिकऔपशमिक-पारिणामिक-सान्निपातिकभाव में मनुष्य, उपशांतकषाय, जीवत्व को घटित कर लेना चाहिए। ___ तत्पश्चात् औपशमिकभाव को विलग कर औदयिक और क्षायिक भाव को ग्रहण किया जाय तब क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक भावों में से एक-एक का ग्रहण करने पर त्रिसंयोगी सान्निपातिकभाव के दो भंग इस प्रकार बनते हैं—१. औदयिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक और २. औदयिक-क्षायिक-पारिणामिक। पहले का दृष्टान्त है—क्षीणकषायी मनुष्य, इन्द्रिय वाला और दूसरे का दृष्टान्त—क्षायिक सम्यक्त्वी, मनुष्य, जीव है। इन भावों को पूर्ववत् घटित कर लेना चाहिए।
केवल औदयिकभाव का ग्रहण और औपशमिक एवं क्षायिक भाव का परित्याग किये जाने पर छठा त्रिकसंयोगी औदयिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिक-सान्निपातिक भंग बनता है। इसका उदाहरण है—मनुष्य, मनोयोगी, जीव है।
यहां तक तो औदयिकभाव संयोग में ग्रहण किया गया है। लेकिन औदयिकभाव को छोड़कर शेष औपशमिकादि चार भावों में से एक-एक का परित्याग किये जाने पर इस प्रकार चार भंग बनते हैं—१. औपशमिकक्षायिक-क्षायोपशमिकसान्निपातिकभाव, २. औपशमिक-क्षायिक-पारिणामिक-सान्निपातिकभाव, ३. औपशमिकक्षायोपशमिक-पारिणामिक-सान्निपातिकभाव और ४. क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिक-सान्निपातिक-भाव । इन चारों के सूत्रोक्त उदाहरण स्वयं घटित कर लेना चाहिए।
इन दस संयोगज भंगों में से पांचवां और छठा भंग जीवों में पाया जाता है। यथा-औदयिक-क्षायिकपारिणामिकभावों के संयोग से निष्पन्न पांचवां सान्निपातिकभाव मनुष्यगति औदयिक, ज्ञान-दर्शन-चारित्र क्षायिक और जीवत्व पारिणामिक रूप होने से यह भंग केवलियों में घटित होता है। इन तीन भावों के अतिरिक्त अन्य भाव उनमें नहीं हैं। क्योंकि उपशम मोहनीयकर्म का होता है और वे मोहनीयकर्म का सर्वथा क्षय कर चुके हैं तथ केवलियों का ज्ञान इन्द्रियातीत-अतीन्द्रिय होने से उनमें क्षायोपशमिकभाव भी नहीं है। .
__ औदयिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक इन तीन भावों से निष्पन्न छठा भंग नारकादि चारों गति के जीवों में होता है। क्योंकि उनमें नारकादि गतियां औदयिकी हैं, इन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव और जीवत्व पारिणामिकभाव है।
इनके अतिरिक्त शेष आठ भंगों की कहीं पर भी संभावना नहीं होने से प्ररूपणामात्र समझना चाहिए।
इस प्रकार त्रिकसंयोगी दस सान्निपातिकभावों की वक्तव्यता है। चतुःसंयोगज सान्निपातिकभाव
२५६. तत्थ णं जे ते पंच चउक्कसंयोगा ते णं इमे—अस्थि णामे उदइए उवसमिए खइए खओवसमनिप्पन्ने १ अस्थि णामे उदइए उवसमिए खइए पारिणामियनिप्पन्ने २ अस्थि णामे उदइए उवसमिए खयोवसमिए पारिणामियनिप्पन्ने ३ अत्थि णामे उदइए खइए