SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ अनुयोगद्वारसूत्र सूत्रगत कठिन शब्दों के अर्थ- अब्भा-अभ्र, मेघ। अब्भरुक्खा —अभ्रवृक्ष-वृक्षाकार में परिणत हुए मेघ। संझा-संध्या—दिनरात्रि का संधिकाल। गंधव्वणगरा-गंधर्वनगर—उत्तम प्रासाद से शोभित नगर की आकृति जैसे आकाश में बने हुए पुद्गलों का परिणमन । उक्कावाया उल्कापात आकाशप्रदेश से गिरता हुआ तेजपुंज । दिसादाघा-दिग्दाह—किसी एक दिशा की ओर आकाश में जलती हुई अग्नि का आभास होना—दिखाई देना । गजिय-गर्जित-मेघ की गर्जना। विजू विद्युत—बिजली।णिग्घाया—निर्घात—गाज (बिजली) गिरना। जूवया यूपक शुक्लपक्ष सम्बन्धी प्रथम तीन दिन का बाल चन्द्र। जक्खादित्ता यक्षादीप्त—आकाश में दिखाई देती हुई पिशाचाकृति अग्नि। धूमिया धूमिका—आकाश में रूक्ष और विरल दिखाई पड़ती हुई धुएं जैसी एक प्रकार की धूमस। महिया–महिका—जलकणयुक्त धूमस, कुहरा । रयुग्घाओ रजोद्घात—आकाश में धूलि का उड़ना, आंधी। चंदोवरागा सूरोवरागा–चन्दोपराग, सूर्योपराग—चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण। चंदपरिवेसा सूरपरिवेसा–चन्द्रपरिवेश, सूर्यपरिवेश—चन्द्र और सूर्य के चारों ओर गोलाकार में परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं का मण्डल । पडिचंदया, पडिसूरया–प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य उत्पात आदि का सूचक द्वितीय चन्द्र और द्वितीय सूर्य का दिखाई पड़ना। इंदधणु–इन्द्रधनुष आकाश में नील-पीत आदि वर्ण विशिष्ट धनुषाकार आकृति । उदगमच्छ— उदकमत्स्य इन्द्रधनुष के खण्ड, टुकड़े। कविहसिया कपिहसिता—कभी-कभी आकाश में सुनाई पड़ने वाली अति कर्णकटु ध्वनि। अमोहा—अमोघ उदय और अस्त के समय सूर्य की किरणों द्वारा उत्पन्न रेखाविशेष। वासा–वर्ष भरतादि क्षेत्र, वासधरा वर्षधर—हिमवान् आदि पर्वत । शेष शब्दों के अर्थ सुगम हैं। सान्निपातिकभाव २५१. से किं तं सण्णिवाइए ? सण्णिवाइए एतेसिं चेव उदइय-उवसमिय-खइए-खओवसमिय-पारिणामियाणं भावाणं दुयसंजोएणं तियसंजोएणं चउक्कसंजोएणं पंचगसंजोएणं जे निप्पजति सव्वे से सन्निवाइए नामे । तत्थ णं दस दुगसंजोगा, दस तिगसंजोगा, पंच चउक्कसंजोगा, एक्के पंचगसंजोगे । [२१५ प्र.] भगवन् ! सान्निपातिकभाव का क्या स्वरूप है ? [२५१ उ.] आयुष्मन् ! औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक, इन पांचों के द्विकसंयोग, त्रिकसंयोग, चतु:संयोग और पंचसंयोग से जो भाव निष्पन्न होते हैं वे सब सन्निपातिकभाव नाम हैं। उनमें से द्विकसंयोगज दस, त्रिकसंयोगज दस, चतुःसंयोगज पांच और पंचसंयोगज एक भाव हैं। इस प्रकार सब मिलाकर ये छब्बीस सान्निपातिकभाव हैं। विवेचन— सूत्र में सान्निपातिकभाव का स्वरूप बतलाया है। पूर्वोक्त औदयिक आदि पांच भावों में से दो आदि भावों के मिलने से जो-जो भाव निष्पन्न होते हैं, वे सब सान्निपातिकभाव हैं। इन औदयिक आदि पांच भावों के द्विक, त्रिक, चतुष्क और पंच संयोगज छब्बीस भंगों में से जीवों में कुल छह भंग पाये जाते हैं। शेष बीस प्ररूपणा मात्र के लिए ही हैं। - सान्निपातिकभाव दो आदि भावों के संयोगजरूप हैं । अतः अब यथाक्रम उन द्विकसंयोगज आदिसान्निपातिकभावों का निरूपण करते हैं।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy