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________________ नामाधिकारनिरूपण १६१ तं पारिणामिए । [२५० प्र.] भगवन् ! अनादि-पारिणामिकभाव का क्या स्वरूप है ? [२५० उ.] आयुष्मन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, अद्धासमय, लोक, अलोक, भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक,ये अनादि-पारिणामिक हैं। यह पारिणामिकभाव का स्वरूप है। विवेचन— सूत्र में पारिणामिक भाव का निरूपण किया है। वह सादि और अनादि के भेद से दो प्रकार का पारिणामिकभाव का लक्षण व विशेषता- द्रव्य के मूल स्वभाव का परित्याग न होना और पूर्व अवस्था का विनाश तथा उत्तर अवस्था की उत्पत्ति होती रहना परिणमन-परिणाम है। अर्थात् स्वरूप में स्थित रहकर उत्पन्न तथा नष्ट होना परिणाम है। ऐसे परिणाम को अथवा इस परिणाम से जो निष्पन्न हो उसे पारिणामिक कहते हैं। पारिणामिकभाव के कारण ही जिस द्रव्य का जो स्वभाव है, उसी रूप में उसका परिणमन-परिवर्तन होता है। अर्थात् प्रत्येक द्रव्य में स्वभावस्थ रहते हुए ही परिवर्तन होता है। वह न तो सर्वथा तदवस्थ नित्य है और न सर्वथा क्षणिक ही। परिणाम के इस लक्षण द्वारा द्रव्य और गुण में एकान्त भेद एवं द्रव्य को सर्वथा अविकृत और गुणों को उत्पन्न-विनष्ट मानने वाले नैयायिक आदि दर्शनों का तथा वस्तुमात्र को क्षणस्थायी—निरन्वय विनाशी मानने वाले बौद्धदर्शन के मंतव्यों का निराकरण किया गया है। यह पारिणामिकभाव सादि और अनादि के भेद से दो प्रकार का है। सादि-पारिणामिक सम्बन्धी स्पष्टीकरण- सादि-पारिणामिक के अनेक प्रकारों की सादिता का कारण यह है सुरा, गुड़, घृत और तंदुलों को नव्य और जीर्ण, इन दोनों अवस्थाओं में अनुगत होने पर भी उनमें नवीनता पर्याय के निवृत्त होने पर जीर्णता रूप पर्याय उत्पन्न होता है। इसलिए सादि-पारिणामिक के उदाहरण रूप में जीर्ण विशेषण से विशिष्ट सुरा आदि पदों को रखा है। जीर्णता उपलक्षण है, अत: इसी प्रकार से नव्य विशेषण के लिए भे समझना चाहिए। __ भरतादि क्षेत्र सादि-पारिणामिक कैसे ?— भरतादि क्षेत्र, हिमवान् आदि वर्षधर पर्वत, नरकभूमियां एवं देवविमान अपने आकार मात्र से अवस्थित रहने के कारण शाश्वत अवश्य हैं किन्तु वे पौद्गलिक हैं और पुद्गलद्रव्य परिणमनशील होने से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल बाद उसमें अवश्य परिणमन होता है। तब विलग हुए उन पुद्गलस्कन्धों के स्थान में दूसरे-दूसरे स्कन्ध मिलकर उस-उस रूप परिणत हो जाते हैं। इसलिए वर्षधरादिकों को सादि-पारिणामिकता के रूप में उदाहृत किया है। मेघ आदि में तो कुछ काल पर्यन्त ही रहने से सादिरूपता स्वयंसिद्ध है। ___ धर्मास्तिकाय आदि षड् द्रव्य, लोक, अलोक, भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक अनादि-पारिणामिकभाव इसलिए है कि वे स्वभावतः अनादि काल से उस-उस रूप से परिणत हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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