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नामाधिकारनिरूपण
१५५ गिद्धे खीणचक्खुदंसणावरणे खीणअचक्खुदंसणावरणे खीणओहिदसणावरणे खीणकेवलदसणावरणे अणावरणे निरावरणे खीणावरणे दरिसणावरणिज्जकम्मविप्पमुक्के, खीणसायवेयणिजे खीणअसायवेयणिजे अवेयणे निव्वेयणे खीणवेयणे सुभाऽसुभवेयणिजकम्मविप्पमुक्के, खीणकोहे जाव खीणलोभे खीणपेजे खीणदोसे खीणदसणमोहणिजे खीणचरित्तमोहणिजे अमोहे निम्मोहे खीणमोहे मोहणिज्जकम्मविप्पपुक्के, खीणणेरइयाउए खीणतिरिक्खजोणियाउए खीणमणुस्साउए खीणदेवाउए अणाउए निराउए खीणाउए आउयकम्मविप्पमुक्के, गति-जाति-सरीरंगोवंग-बंधणसंघात-संघतण-अणेगबोंदिविंदसंघायविप्पमुक्के, खीणसुभणामे खीणसुभगणामे अणामे निण्णामे खीणनामे सुभाऽसुभणामकम्मविप्पमुक्के, खीणउच्चागोए, खीणणीयागोए अगोए निग्गोए खीणगोए सुभाऽसुभगोत्तकम्मविप्पमुक्के, खीणदाणंतराए खीणलाभंतराए खीणभोगंतराए खीणुवभोगंतराए खीणविरियंतराए अणंतराए णिरंतराए खीणंतराए अंतराइयकम्म-विप्पमुक्के, सिद्धे, बुद्धे मुत्ते परिणिव्वुए अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे । से तं खयनिष्फण्णे । से तं खइए ।
[२४४ प्र.] भगवन् ! क्षयनिष्पन्न क्षायिकभाव का क्या स्वरूप है ?
[२४४ उ.] आयुष्मन् ! क्षयनिष्पन्न क्षायिकभाव अनेक प्रकार का कहा है। यथा उत्पन्नज्ञानदर्शनधारी, अर्हत्, जिन, केवली, क्षीणआभिनिबोधिकज्ञानावरण वाला, क्षीणश्रुतज्ञानावरण वाला, क्षीणअवधिज्ञानावरण वाला, क्षीणमनःपर्यवज्ञानावरण वाला, क्षीणकेवलज्ञानावरण वाला, अविद्यमान आवरण वाला, निरावरण वाला, क्षीणावरण वाला, ज्ञानावरणीयकर्मविप्रमुक्त, केवलदर्शी, सर्वदर्शी, क्षीणनिद्र, क्षीणनिद्रानिद्र, क्षीणप्रचल, क्षीणप्रचलाप्रचल, क्षीणस्त्यानगृद्धि, क्षीणचक्षुदर्शनावरण वाला, क्षीणअचक्षुदर्शनावरण वाला, क्षीणअवधिदर्शनावरण वाला, क्षीणकेवलदर्शनावरण वाला, अनावरण, निरावरण, क्षीणावरण, दर्शनावरणीयकर्मविप्रमुक्त, क्षीणसातावेदनीय, क्षीणअसातावेदनीय, अवेदन, निर्वेदन, क्षीणवेदन, शुभाशुभ-वेदनीयकर्मविप्रमुक्त, क्षीणक्रोध यावत् क्षीणलोभ, क्षीणराग, क्षीणद्वेष, क्षीणदर्शनमोहनीय, क्षीणचारित्रमोहनीय, अमोह, निर्मोह, क्षीणमोह, मोहनीयकर्मविप्रमुक्त, क्षीणनरकायुष्क, क्षीणतिर्यंचायुष्क, क्षीणमनुष्यायुष्क, क्षीणदेवायुष्क, अनायुष्क, निरायुष्क, क्षीणायुष्क, आयुकर्मविप्रमुक्त, गति-जाति-शरीर-अंगोपांग-बंधन-संघात-संहनन-अनेकशरीरवृन्दसंघातविप्रमुक्त, क्षीण-शुभनाम, क्षीण-सुभगंनाम, अनाम, निर्नाम, क्षीणनाम, शुभाशुभनामकर्मविप्रमुक्त, क्षीण-उच्चगोत्र, क्षीण-नीचगोत्र, अगोत्र, निर्गोत्र, क्षीणगोत्र, शुभाशुभगोत्रकर्मविप्रमुक्त, क्षीण-दानान्तराय, क्षीण-लाभान्तराय, क्षीण-भोगान्तराय, क्षीणउपभोगान्तराय, क्षीण-वीर्यान्तराय, अनन्तराय, निरंतराय, क्षीणान्तराय, अंतरायकर्मविप्रमुक्त, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त, अंतकृत, सर्वदुःखप्रहीण।
यह क्षयनिष्पन्न क्षायिकभाव का स्वरूप है। इस प्रकार से क्षायिकभाव की वक्तव्यता जानना चाहिए। विवेचन- यहां क्षय और क्षयनिष्पन्न भावों का स्वरूप निरूपण किया है।
क्षायिकभाव अपने-अपने उत्तरभेदों सहित ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के सर्वथा अपगम रूप है और क्षयनिष्पन्न क्षायिक भावों के रूप में जो नाम गिनाये हैं, वे क्षय से उत्पन्न हुई आत्मा की निज स्वाभाविक अवस्थाएं हैं। कर्मों के नष्ट होने पर आत्मा का जो मौलिक रूप प्रकट होता है, उसी के ये वाचक हैं। जैसे केवलज्ञानावरण के नष्ट होने पर आत्मा में केवलज्ञानगुण प्रकट हो जाता है और मतिज्ञान आदि चार क्षायोपशमिक ज्ञान क्षायिक रूप हो