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________________ १५४ अनुयोगद्वारसूत्र विवेचन— सूत्रकार ने इन तीन सूत्रों में औपशमिकभाव का स्वरूप बतलाया है। उपशम से होने वाला औपशमिक भाव दो प्रकार का है। एक प्रकार का औपशमिक भाव तो वह है जो मोहनीयकर्म के उपशम से होता मोहनीयकर्म, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के भेद से दो प्रकार का है। दर्शनमोहनीय के उदय से जीव आत्मस्वरूप का दर्शन, श्रद्धान करने में असमर्थ रहता है। उसकी श्रद्धा-प्रतीति यथार्थ नहीं होती है और चारित्रमोहनीय के उदय रहते जीव आत्मस्वरूप में स्थिर नहीं हो पाता है। दर्शनमोहनीय के तीन भेदों और चारित्रमोहनीय के २५ भेदों को मिलाने से मोहनीयकर्म के अट्ठाईस भेद हैं। मोहनीयकर्म का पूर्ण उपशम ग्यारहवें गुणस्थान में होता दर्शनमोहनीय के उपशम से सम्यक्त्वलब्धि की और चारित्रमोहनीय के उपशम से चारित्रलब्धि की प्राप्ति होती है। यह बतलाने के लिए सूत्र में उवसमिया सम्मत्तलद्धी, उवसमिया चरित्तलद्धी यह दो पद दिये हैं। दूसरे उपशमनिष्पन्न औपशमिकभाव के अनेक भेद दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के अनेक प्रभेदों के उपशांत होने की अपेक्षा से जानना चाहिए। इसीलिए उपशांतक्रोध आदि का निर्देश किया है। उपशांतकषायछमस्थवीतराग– इसमें उपशांतकषाय, छद्मस्थ और वीतराग, यह तीन शब्द हैं । अर्थात् कषाय के उपशांत हो जाने से राग-द्वेष का सर्वथा उदय नहीं है, किन्तु छद्म (ज्ञानावरण आदि आवरणभूत घातिकर्म) अभी शेष हैं। इस प्रकार की स्थिति उपशांतकषायछद्मस्थवीतराग कहलाती है। इसमें मोहनीयकर्म की सत्ता तो है, किन्तु उदय नहीं होने से शरद् ऋतु में होने वाले सरोवर के जल की तरह मोहनीयकर्म के उपशम से उत्पन्न होने वले जीव के निर्मल परिणाम होते हैं। क्षायिकभाव २४२. से किं तं खइए ? खइए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा—खए य १ ख्यनिष्फण्णो य २ । [२४२ प्र.] भगवन् ! क्षायिकभाव का क्या स्वरूप है ? [२४२ उ.] आयुष्मन् ! क्षायिकभाव दो प्रकार का कहा गया है। यथा—१. क्षय और २. क्षयनिष्पन्न। २४३. से किं तें खए ? खए अट्ठण्हं कम्मपगडीणं खएणं । से तं खए । [२४३ प्र.] भगवन् ! क्षय-क्षायिकभाव किसे कहते हैं ? [२४३ उ.] आयुष्मन् ! आठ कर्मप्रकृतियों के क्षय से होने वाला भाव क्षायिक है। २४४. से किं तं खयनिष्फण्णे ? खयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते । तं जहा—उप्पण्णणाणदंसणधरे-अरहा जिणे केवली खीणआभिणिबोहियणाणावरणे खीणसुयणाणावरणे खीणओहिणाणावरणे खीणमणपज्जवणाणावरणे खीणकेवलणाणावरणे अणावरणे णिरावरणे खीणावरणे णाणावरणिज्जकम्मविप्पमुक्के, केवलदंसी सव्वदंसी खीणनिद्दे खीणनिहानिद्दे खीणपयले खीणपयलापयले खीणथीण
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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