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नामाधिकारनिरूपण
भाव होता है । इसी प्रकार कर्मोदय से जीव में जो भी अन्य पर्याय निष्पन्न हों, वे सब जीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव रूप हैं।
सूत्रकार द्वारा सूत्र में जीवोदयनिष्पन्न के रूप में किये गये कतिपय नामों का उल्लेख उपलक्षण मात्र है । अतः इनके समान ही निद्रा, निद्रानिद्रा आदि निद्रापंचक प्रभृति जो भी जीव के स्वाभाविक गुणों के घातक कर्म हैं, उन सबके उदय से उत्पन्न पर्यायों को जीवोदयनिष्पन्न औदयिकभावरूप समझना चाहिए।
अजीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव के भी अनेक प्रकार बताये हैं। जैसे औदारिक आदि शरीर । इन शरीरादि को अजीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव इसलिए कहा है कि यद्यपि नारकत्व आदि पर्यायों की तरह औदारिक आदि शरीर भी जीव के होते हैं, लेकिन औदारिक आदि शरीरनामकर्मों का विपाक मुख्यतया शरीर रूप परिणत पुद्गलों में होने से इन्हें पुद्गलविपाकी प्रकृतियों में परिगणित किया है और पुद्गल अजीब है। अतः इनको अजीवोदय - निष्पन्न औदयिकभाव रूप माना जाता है।
औपशमिकभाव
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२३९. से किं तं उवसमिए ?
उवसमिए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा— उवसमे य १ उवसमनिप्फण्णे य २ ।
[२३९ प्र.] भगवन् ! औपशमिकभाव का क्या स्वरूप है ?
[२३९ उ.] आयुष्मन् ! औपशमिकभाव दो प्रकार का है। वह इस प्रकार — १. उपशम और २. उपशम
निष्पन्न ।
२४०. से किं तं उवसमे ?
उसमे मोहणिज्जस्स कम्मस्स उवसमेणं । से तं उवसमे ।
[२४० प्र.] भगवन् ! उपशम (औपशमिक) का क्या स्वरूप है ?
[ २४० उ. ] आयुष्मन् ! मोहनीयकर्म के उपशम से होने वाले भाव को उपशम (औपशमिक) भाव कहते
हैं।
२४१. से किं तं उवसमनिष्फण्णे ?
उवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते । तं जहा— उवसंतकोहे जाव उवसंतलोभे उवसंतपेज्जे उवसंतदोसे उवसंतदंसणमोहणिज्जे उवसंतचरित्तमोहणिज्जे उवसंतमोहणिज्जे उवसमिया सम्मत्तलद्धी उवसमिया चरित्तलद्धी उवसंतकसायछउमत्थवीतरागे । से तं उवसमनिप्फण्णे । से तं उवसमिए ।
[२४१ प्र.] भगवन् ! उपशमनिष्पन्न औपशमिकभाव का क्या स्वरूप है ?
[२४१ उ.] आयुष्मन् ! उपशमनिष्पन्न औपशमिकभाव के अनेक प्रकार हैं। जैसे कि उपशांतक्रोध यावत् उपशांतलोभ, उपशांतराग, उपशांतद्वेष, उपशांतदर्शनमोहनीय, उपशांतचारित्रमोहनीय, उपशांतमोहनीय, औपशमिक सम्यक्त्वलब्धि, औपशमिक चारित्रलब्धि, उपशांतकषायछद्मस्थवीतराग आदि उपशमनिष्पन्न औपशमिकभाव हैं। इस प्रकार से औपशमिकभाव का स्वरूप जानना चाहिए।