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________________ १५२ अनुयोगद्वारसूत्र । [२३७ उ.] आयुष्मन् ! जीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव अनेक प्रकार का कहा गया है। यथा नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य, देव, पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक, क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, कृष्णलेश्यी, नील-कापोत-तेज-पद्म-शुक्ललेश्यी, मिथ्यादृष्टि, अविरत, अज्ञानी, आहारक, छद्मस्थ, सयोगी, संसारस्थ, असिद्ध । यह जीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव का स्वरूप है। अजीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव २३८. से किं तं अजीवोदयनिष्फन्ने ? अजीवोदयनिष्फन्ने चोहसविहे पण्णत्ते । तं जहा–ओरालियं वा सरीरं १ ओरालियसरीरपयोगपरिणामियं वा दव्वं २ वेउव्वियं वा सरीरं ३ वेउव्वियसरीरपयोगपरिणामियं वा दव्वं ४ एवं आहारगं सरीरं ६ तेयगं सरीरं ८ कम्मगं सरीरं च भाणियव्वं १० पयोगपरिणामिए वण्णे ११ गंधे १२ रसे १३ फासे १४ । से तं अजीवोदयनिष्फण्णे । से तं उदयनिष्फण्णे । से तं उदए । [२३८ प्र.] भगवन् ! अजीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव का क्या स्वरूप है ? [२३८ उ.] आयुष्मन् ! अजीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव चौदह प्रकार का कहा है। यथा—१. औदारिकशरीर, २. औदारिकशरीर के व्यापार से परिणामित-गृहीत द्रव्य, ३. वैक्रियशरीर, ४. वैक्रियशरीर के प्रयोग से परिणामित द्रव्य, इसी प्रकार ५-६. आहारकशरीर और आहारकशरीर के व्यापार से परिणामित द्रव्य, ७-८. तैजसशरीर और तैजसशरीर के व्यापार से परिणामित द्रव्य, ९-१०. कार्मणशरीर और कार्मणशरीर के व्यापार से परिणामित द्रव्य तथा ११-१४. पांचों शरीरों के व्यापार से परिणामित वर्ण, गंध, रस, स्पर्श द्रव्य। इस प्रकार से यह अजीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव तथा उदयनिष्पन्न और औदयिक दोनों प्रकार के औदयिकभावों की प्ररूपणा जानना चाहिए। विवेचन— इन दो सूत्रों में जीवोदयनिष्पन्न और अजीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव का निरूपण किया है। कर्मों के उदय से जीव में उदित होने वाला भाव जीवोदयनिष्पन्न और अजीव के माध्यम से उदित होने वाला भाव अजीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव है। जीवोदयनिष्पन्न औदयिकभाव में नारक आदि चार गतियां, क्रोधादि चार कषाय, तीन वेद, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, छह लेश्यायें, असंयम, संसारत्व, असिद्धत्व आदि परिगणित किये गये हैं, क्योंकि ये सब भाव कर्म के उदय से जीव में ही निष्पन्न होते हैं। जैसे कि गतिनामकर्म के उदय से मनुष्यगति आदि गतियां उत्पन्न होती हैं और इन गतियों का उदय होने पर जीव मनुष्य, तिर्यंच आदि कहलाता है। इसी प्रकार क्रोधादि चारों कषायों का उदय कषायचारित्रमोहनीयकर्मजन्य है तथा नोकषायचारित्रमोहनीय का उदय होने पर स्त्री आदि वेदत्रिक, हास्यादि नोकषाय निष्पन्न होते हैं। मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से मिथ्यादर्शन और ज्ञानावरण के उदय से अज्ञान होता है। लेश्याएं कषायानुरंजित योगप्रवृत्ति रूप हैं और योग शरीरनामकर्म के उदय के फल हैं। चारित्रमोहनीय के सर्वघातिस्पर्धकों के उदय से असंयतभाव तथा किसी भी कर्म का उदय रहने तक असिद्धत्वभाव एवं संसारस्थत्व
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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