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________________ १५० अनुयोगद्वारसूत्र पारिणामिकभाव और सान्निपातिकभाव इस प्रकार समग्र पद का ग्रहण किया गया है। इन औदयिकभाव आदि के लक्षण इस प्रकार हैं १. औदयिकभाव- ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मों के विपाक का अनुभव करने को उदय कहते हैं। इस उदय का अथवा उदय से निष्पन्नभाव (पर्याय) का नाम औदयिकभाव है। २. औपशमिकभाव- सत्ता में रहते हुए भी कर्मों का उदय में नहीं रहना अर्थात् आत्मा में कर्म की निज शक्ति का कारणवश प्रकट न होना या प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार के कर्मोदय का रुक जाना उपशम है। जैसे भस्मराशि से आच्छादित अग्नि छिपी रहती है, उसी प्रकार इस उपशम अवस्था में कर्मों का उदय नहीं होता है, किन्तु वे सत्ता में स्थित रहते हैं। इस उपशम का नाम ही औपशमिकभाव है। अथवा इस उपशम से निष्पन्न भाव को औपशमिकभाव कहते हैं। यह भाव सादि-सान्त है। ३.क्षायिकभाव– कर्म के आत्यन्तिक विनाश होने को क्षय कहते हैं। यह क्षय ही क्षायिक है। अथवा क्षय से जो भाव उत्पन्न होता है वह क्षायिकभाव है। सारांश यह कि कर्म के आत्यन्तिक क्षय से प्रकट होने वाला भाव क्षायिकभाव है। यह भाव सादि-अनन्त है। ४.क्षायोपशमिकभाव– कर्मों का क्षय और उपशम होना क्षयोपशम है। यह क्षयोपशम ही क्षायोपशमिकभाव है। अथवा क्षयोपशम से जो भाव उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिकभाव है। यह भाव कुछ बुझी हुई और कुछ नहीं बुझी हुई अग्नि के समान जानना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि इस क्षयोपशम में कितनेक सर्वघातिस्पर्धकों का उदयाभावी क्षय और कितनेक सर्वघातिस्पर्धकों का सदवस्था रूप उपशम होता है और देशघाति प्रकृति का उदय रहता है। इसीलिए इस भाव को कुछ बुझी हुई और कुछ नहीं बुझी हुई अग्नि की उपमा दी है। क्षयोपशम से कर्म के उदयावलिप्रविष्ट मंद रसस्पर्धकों का क्षय और अनुदीयमान रसस्पर्धकों की सर्वघातिनी विपाकशक्ति का निरोध या देशघाति रूप में परिणमन होता है। यद्यपि क्षयोपशम में कुछ कर्मों का उदय रहता है किन्तु उनकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाने के कारण वे जीव के गुणों को घातने में समर्थ नहीं होते हैं। पूर्णशक्ति के साथ कर्मों का उदय में न आकर क्षीणशक्ति होकर उदय में आना ही यहां क्षय या उदयाभावी क्षय और सत्तागत सर्वघाति कर्मों का उदय में न आना ही सदवस्थारूप उपशम कहलाता है। यद्यपि देशघाती कर्मों का उदय होने की अपेक्षा यहां औदयिक भाव भी माना जा सकता है किन्तु गुण के प्रकट होने वाले अंश की अपेक्षा इसे क्षायोपशमिकभाव कहा है। ५. पारिणामिकभाव- अमुक-अमुक रूप से वस्तुओं का परिणमन होना परिणाम और यह परिणाम ही पारिणामिकभाव है। अथवा उस परिणाम से जो भाव उत्पन्न होता है वह पारिणामिकभाव है। अथवा जिसके कारण मूल वस्तु में किसी प्रकार का परिवर्तन न हो, वस्तु का स्वभाव में ही परिणत होते रहना पारिणामिकभाव है। ६.सान्निपातिकभाव- इन पांचों भावों में से दो-तीन आदि भावों का मिलना सन्निपात है, यह सन्निपात ही सान्निपातिकभाव है। अथवा इस सन्निपात से जो भाव उत्पन्न होता है, वह सान्निपातिकभाव कहलाता है। अब इन भावों का विस्तार से स्वरूप निरूपण करते हैं।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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