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________________ १४८ अनुयोगद्वारसूत्र [२३० प्र.] भगवन् ! प्रकृतिनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [२३० उ.] आयुष्मन् ! अग्नी एतौ, पटू इमौ, शाले एते, माले इमे इत्यादि प्रयोग प्रकृतिनिष्पन्ननाम हैं। २३१. से किं तं विकारेणं ? विकारेणं दण्डस्य अग्रं दण्डाग्रम्, सा आगता साऽऽगता, दधि इदं दधीदम्, नदी ईहते नदीहते, मधु उदकं मधूदकम्, बहु ऊहते बहूहते । से तं विकारेणं । से तं चउणामे । [२३१ प्र.] भगवन् ! विकारनिष्पन्ननाम का क्या स्वरूप है ? [२३१ उ.] आयुष्मन् ! दण्डस्स+अग्रं—दण्डाग्रम्, सा+आगता साऽऽगता, दधि+इदं दधीदं, नदी+ईहतेनदीहते, मधु+उदकं–मधूदकं, बहु+ऊहते-बहूहते, ये सब विकारनिष्पन्न नाम हैं। इस प्रकार से यह चतुर्नाम का स्वरूप है। विवेचन— सूत्र २२७ से २३१ तक पांच सूत्रों में आपेक्षिक निष्पन्नताओं द्वारा चतुर्नाम का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। आगम, लोप, प्रकृति और विकार इन चार कारणों से निष्पन्न होने से चतुर्नाम के चार प्रकार हैं। इन आगमनिष्पन्न आदि के लक्षण इस प्रकार हैं आगमनिष्पन्न- किसी वर्ण के आगम-प्राप्ति से निष्पन्न पद आगमनिष्पन्न कहलाते हैं। जैसे पद्मानि इत्यादि। इनमें 'धुट्स्वराद् घुटि नुः (कातंत्रव्याकरण सूत्र २४)' सूत्र द्वारा आगम का विधान होने से पद्मानि आदि शब्द आगमनिष्पन्न के उदाहरण हैं। इसी प्रकार 'संस्कार' इत्यादि शब्दों के लिए जानना चाहिए कि इनमें सुट का आगम होने से 'संस्कार' यह आगमनिष्पन्न नाम हैं। लोपनिष्पन्न- किसी वर्ण के लोप-अपगम से जो शब्द निष्पन्न होते हैं उन्हें लोपनिष्पन्ननाम कहते हैं। जैसे ते+अत्र तेऽत्र इत्यादि। इन शब्दों में एदोत्परः पदान्ते' (कातंत्रव्याकरण सूत्र ११५) सूत्र द्वारा अकार का लोप होने से यह लोपनिष्पन्ननाम हैं। इसी प्रकार मनस्+ईषा—मनीषा (बुद्धि), भ्रमतीति भ्रूः इत्यादि शब्द सकार, मकार आदि वर्गों के लोप से निष्पन्न होने के कारण लोपनिष्पन्ननाम हैं। प्रकृतिनिष्पन्न— जो प्रयोग जैसे हैं उनका वैसा ही रूप रहना प्रकृतिभाव है। अतः जिन प्रयोगों में प्रकृतिभाव होने से किसी प्रकार का विकार (परिवर्तन) न होकर मूल रूप में ही रहते हैं, उन्हें प्रकृतिनिष्पन्ननाम कहते हैं। ये प्रयोग व्याकरणिक विभक्ति आदि से संयुक्त होते हैं। जैसे—'अग्नी एतौ' इत्यादि शब्द। यहां 'द्विवचनमनो' (का.सूत्र ६२) सूत्र द्वारा प्रकृतिभाव का विधान किये जाने से सन्धि नहीं हुई। यह प्रकृतिनिष्पन्ननाम का उदाहरण है। विकारनिष्पन्न- किसी वर्ण का वर्णान्तर के रूप में होने को विकार कहते हैं। विकार से निष्पन्न होने वाला नाम विकारनिष्पन्ननाम कहलाता है। अर्थात् जिस नाम में किसी एक वर्ण के स्थान पर दूसरे वर्ण का प्रयोग होता है वह विकारनिष्पन्ननाम है। जैसे—'दंडस्य+अग्रम् दंडाग्रम्' आदि। इन उदाहरणों में 'समानः सवर्णे दीर्धीभवति परश्च लोपम्' (का. २४) सूत्र द्वारा आकार रूप दीर्घ वर्णात्मक विकार किये जाने से ये विकारनिष्पन्ननाम के उदाहरण हैं। इसी प्रकार अन्यान्य विकारनिष्पन्न नामों का विचार स्वयं कर लेना चाहिए। शब्दशास्त्र की दृष्टि से सभी शब्द प्रकृति प्रत्यय आगम आदि किसी-न-किसी एक से निष्पन्न होते हैं।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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