SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ अनुयोगद्वारसूत्र अविरोधी दो स्पर्श तथा एक वर्ण, एक गंध, एक रस, इस प्रकार कुल पांच गुण और उनके पर्याय सम्भव हैं। ये वर्ण आदि गुण मूर्त वस्तु —पुद्गल से कभी विलग नहीं होते हैं किन्तु इनके एक, दो आदि रूप अंश रूपान्तरित होते रहते हैं। तभी द्रव्य के अवस्थान्तर होने का बोध होता है। जैसे किसी परमाणु में सर्वजघन्य (एकगुण) कृष्णादि गुण हैं, वे दो अंश कृष्णादि गुणों के आने पर निवृत्त हो जाते हैं। इसलिए कृष्णादि गुणों के ये एक, दो, तीन यावत् असंख्यात और अनन्त अंश सब पर्याय हैं। पुद्गलास्तिकाय के गुण-पर्यायों का उल्लेख क्यों ?— जैसे ये वर्ण, गंध आदि गुण और इनके अंश रूप पर्याय पुद्गलास्तिकाय में पाए जाते हैं, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय आदि में भी गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व आदि गुण और प्रत्येक में अनन्त अगुरुलघु रूप पर्याय पाए जाते हैं। परन्तु अमूर्त होने से उनका उल्लेख नहीं करके इन्द्रिय-प्रत्यक्ष होने से पुद्गल की द्रव्य, गुण और पर्यायरूपता का ही यहां उल्लेख किया है। - इस प्रकार द्रव्य, गुण और पर्याय के भेद से त्रिनाम की व्याख्या करने के बाद अब प्रकारान्तर से पुनः त्रिनाम की एक और व्याख्या करते हैं। त्रिनाम की व्याख्या का दूसरा प्रकार २२३.तं पुण णाम तिविहं इत्थी १ पुरिसं २ णपुंसगं ३ चेव । एएसिं तिहं पि य अंतम्मि परूवणं वोच्छं ॥ १८॥ तत्थ पुरिसस्स अंता आ ई ऊ ओ य होंति चत्तारि । ते चेव इत्थियाए हवंति ओकारपरिहीणा ॥ १९॥ अंति य इं ति य उ ति य अंता उ णपुंसगस्स बोद्धव्वा । एतेसिं तिण्हं पि य वोच्छामि निदसणे एत्तो ॥ २०॥ आकारंतो राया ईकारंतो गिरी य सिहरी य । ऊकारंतो विण्हू दुमो ओअंताओ पुरिसाणं ॥ २१॥ आकारंता माला ईकारंता सिरी य लच्छी य । ऊकारंता जंबू वहू य अंता उ इत्थीणं ॥ २२॥ अंकारंतं धनं इंकारंतं नपुंसकं अच्छि । उंकारंतं पीलुं महुं च अंता णपुंसाणं ॥ २३॥ से तं तिणामे । [२२६] उस त्रिनाम के पुनः तीन प्रकार हैं। जैसे—१. स्त्रीनाम, २. पुरुषनाम और ३. नपुंसकनाम। इन तीनों प्रकार के नामों का बोध उनके अन्त्याक्षरों द्वारा होता है। ॥ १८॥ पुरुषनामों के अंत में आ, ई, ऊ, ओ' इन चार में से कोई एक वर्ण होता है तथा स्त्रीनामों के अंत में 'ओ' को छोड़कर शेष तीन (आ, ई, ऊ) वर्ण होते हैं। ॥ १९॥ ____जिन शब्दों के अन्त में अं, इं या उं वर्ण हो, उनको नपुंसकलिंग वाला समझना चाहिए। अब इन तीनों के उदाहरण कहते हैं। ॥२०॥
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy