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________________ १४० अनुयोगद्वारसूत्र [२१६-१८] यदि अनुत्तरोपपातिक देव इस नाम को अविशेषित नाम कहा जाये तो विजय, वैजयन्त, जयन्त, . अपराजित, सर्वार्थसिद्धविमानदेव विशेषित नाम कहलायेंगे। इन सबको भी अविशेषित नाम की कोटि में ग्रहण किया जाए तो प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद विशेषित नाम रूप हैं। (१९) अविसेसिए अजीवदव्वे, विसेसिए धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए य । __ अविसेसिए पोग्गलत्थिकाए विसेसिए परमाणुपोग्गले दुपएसिए जाव अणंतपएसिए । से तं दुनामे । - [२१६-१९) यदि अजीवद्रव्य को अविशेषित नाम माना जाये तो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय, ये विशेषित नाम होंगे। यदि पुद्गलस्तिकाय को भी अविशेषित नाम माना जाये तो परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध, यह नाम विशेषित कहलायेंगे। . इस प्रकार से द्विनाम का स्वरूप जानना चाहिए। विवेचन- इन सत्रों में अविशेषित और विशेषित इन दो अपेक्षाओं से द्विनाम का वर्णन किया है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। संग्रहनय सामान्य अंश को और व्यवहारनय विशेष को प्रधानता देकर स्वीकार करता है। संग्रहनय द्वारा गृहीत अविशेषित सामान्यएकत्व में व्यवहारनय विधिपूर्वक भेद करता है। इन दोनों नयों की दृष्टि से ये नाम अविशेषित और विशेषित बन जाते हैं। इनमें पूर्व-पूर्व अविशेषित- सामान्य और उत्तरोत्तर विशेषित—विशेष नाम हैं। सूत्रार्थ सुगम है। सामान्य-विशेष नामों के द्वारा जीव और अजीव द्रव्यों के इस प्रकार भेद करना चाहिए। कतिपय पारिभाषिक शब्द- सूत्र में आगत प्रायः सभी शब्द पारिभाषिक हैं। लेकिन उनमें से यहां कतिपय विशेष शब्दों के ही अर्थ प्रस्तुत करते हैं। सम्मूछिम जीव वे हैं जो तथाविधकर्म के उदय से गर्भ के बिना ही उत्पन्न हो जाते हैं । व्युत्क्रान्ति का तात्पर्य उत्पत्ति है। अतः जिन जीवों की उत्पत्ति गर्भजन्म से होती है वे गर्भव्युत्क्रान्तिक जीव हैं। जो सरकते हैं, वे परिसर्प कहलाते हैं। ये जीव भुजपरिसर्प और उरपरिसर्प के भेद से दो प्रकार के हैं। सादिक जीव छाती से सरकने वाले होने से उरपरिसर्प कहलाते हैं और जो जीव भुजाओं से सरकते हैं, वे भुजपरिसर्प हैं। जैसे गोधा, नकुल आदि। इस प्रकार से द्विनाम की वक्तव्यता जानना चाहिए। त्रिनाम २१७. से किं तं तिनामे ? तिनामे तिविहे पण्णत्ते । तं जहा—दव्वणामे १ गुणणामे २ पजवणामे य ३ । । [२१७ प्र.] भगवन् ! त्रिनाम का क्या स्वरूप है ? [२१७ उ.] आयुष्मन् ! त्रिनाम के तीन भेद हैं। वे इस प्रकार—१. द्रव्यनाम, २. गुणनाम और ३. पर्यायनाम।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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