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________________ नामाधिकारनिरूपण १३१ [२०७-४ प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [२०७-४ उ.] आयुष्मन् ! एक से लेकर एकोत्तर वृद्धि द्वारा छह पर्यन्त की श्रेणी में स्थापित संख्या का परस्पर गुणाकार करने पर प्राप्त राशि में से प्रथम और अंतिम भंग को कम करने पर शेष रहे भंग अनानुपूर्वी हैं। इस प्रकार से भाव-अनानुपूर्वी का वर्णन पूर्ण हुआ और इसके साथ ही उपक्रम के आनुपूर्वी नामक प्रथम भेद की वक्तव्यता भी समाप्त हुई। विवेचन- सूत्र में भावानुपूर्वी का स्वरूप बतलाया है। वस्तु के परिणाम (पर्याय) को भाव कहते हैं। प्रस्तुत भाव अन्त:करण की परिणतिविशेष रूप हैं। भाव जीव और अजीव दोनों में पाये जाते हैं, परन्तु प्रसंग होने से यहां जीव से संबद्ध भावों को ग्रहण किया है, अर्थात् ये औदयिक आदि भाव जीव के परिणामविशेष हैं। इन परिणाम रूप भावों की परिपाटी को भावानपी कहते हैं। भावों का क्रमविन्यास- इस शास्त्र में नारकादि चारों गतियां औदयिकभाव रूप से कही जाने वाली हैं और औदयिकभाव रूप नरकादि गतियों के होने पर ही शेष औपशमिक आदि भाव यथासंभव उत्पन्न होते हैं। इसी कारण उसका सर्वप्रथम उपन्यास किया है और इसके बाद अवशिष्ट पांचों भावों का। अवशिष्ट पांच भावों में भी औपशमिक भाव अल्प विषय वाला है। इसलिए प्रथम औपशमिक भाव का और औपशमिक की अपेक्षा अधिक विषय वाला होने से औपशमिक के बाद क्षायिकभाव का विन्यास किया है। इसके अनन्तर विषयों की तरतमता का आश्रय करके क्रम से क्षयोपशमिक और पारिणामिक भाव का पाठ रखा है। इन पूर्वोक्त भावों के द्विकादि संयोगों से सान्निपातिकभाव उत्पन्न होता है। इसलिए सब से अंत में सान्निपातिकभाव का उपन्यास किया गया है। इस प्रकार का क्रमविन्यास पूर्वानुपूर्वी रूप है और व्युत्क्रम पश्चानुपूर्वी है और आदि तथा अंत भंग को छोड़कर शेष भंग अनानुपूर्वी हैं। ___ इस प्रकार से भावानुपूर्वी का वर्णन जानना चाहिए। पूर्व में नामानुपूर्वी से लेकर भावानुपूर्वी तक जो दस आनुपूर्वियां के नाम गिनाये थे, उनका वर्णन समाप्त हो चुका है, यह सूचना सूत्र में से तं आणुपुव्वी' पद द्वारा दी गई है तथा 'आणुपुव्वी त्ति पदं समत्तं' पद द्वारा यह बतलाया है कि उपक्रम के प्रथम भेद आनुपूर्वी की वक्तव्यता भी समाप्त हुई। अब उपक्रम के दूसरे भेद नाम का वर्णन करते हैं। नामाधिकार की भूमिका २०८. से किं तं णामे ? णामे दसविहे पण्णत्ते । तं जहा—एगणामे १ दुणामे २ तिणामे ३ चउणामे ४ पंचणामे ५ छणामे ६ सत्तणामे ७ अट्ठणामे ८ णवणामे ९ दसणामे १० । [२०८ प्र.] भगवन् ! नाम का क्या स्वरूप है ? [२०८ उ.] आयुष्मन् ! नाम के दस प्रकार हैं। वे इस तरह —१. एक नाम, २. दो नाम, ३. तीन नाम, ४. चार नाम, ५. पांच नाम, ६. छह नाम, ७. सात नाम, ८. आठ नाम, ९. नौ नाम, १०. दस नाम।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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