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आनुपूर्वीनिरूपण
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[२०६-४ प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
[२०६-४ उ.] आयुष्मन् ! एक से लेकर दस पर्यन्त एक-एक की वृद्धि द्वारा श्रेणी रूप में स्थापित संख्या का परस्पर गुणाकार करने से प्राप्त राशि में से प्रथम और अन्तिम भंग को कम करने पर शेष रहे भंग अनानुपूर्वी हैं।
इस प्रकार से समाचारी-आनुपूर्वी का स्वरूप जानना चाहिए।
विवेचन— सूत्रार्थ सुगम है। शिष्टजनों द्वारा आचरित क्रियाकलाप रूप आचार की परिपाटी समाचारीआनुपूर्वी है और उस समाचारी का इच्छाकार आदि के क्रम से उपन्यास करना पूर्वानुपूर्वी आदि है। इच्छाकार आदि के लक्षण इस प्रकार हैं
१. इच्छाकार- बिना किसी दबाव के आन्तरिक प्रेरणा से व्रतादि के आचरण करने की इच्छा करना इच्छाकार है।
२.मिथ्याकार- अकृत्य का सेवन हो जाने पर पश्चात्ताप द्वारा मैंने यह मिथ्या असत् आचरण किया, ऐसा विचार करना मिथ्याकार कहलाता है।
३. तथाकार- गुरु के वचनों को 'तहत' कहकर स्वीकार करना—गुरु-आज्ञा को स्वीकार करना। ४. आवश्यकी— आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाने पर गुरु से निवेदन करना। ५. नैषेधिकी कार्य करके वापस आने पर अपने प्रवेश की सूचना देना। ६. आप्रच्छना- किसी भी कार्य को करने के लिए गुरुदेव से आज्ञा लेना—पूछना। ७. प्रतिप्रच्छना— कार्य को प्रारंभ करते समय पुनः गुरुदेव से पूछना अथवा किसी कार्य के लिए गुरुदेव ने मना कर दिया हो तब थोड़ी देर बाद कार्य की अनिवार्यता बताकर पुनः पूछना। ८. छंदना- अन्य सांभोगिक साधुओं से अपना लाया आहार आदि ग्रहण करने के लिए निवेदन करना। ९. निमन्त्रणा आहारादि लाकर आपको दूंगा, ऐसा कहकर अन्य साधुओं को निमंत्रित.करना। १०. उपसंपत्– श्रुतादि की प्राप्ति के अर्थ अन्य साधु की आधीनता स्वीकार करना।
इच्छाकारादि का उपन्यासक्रम- धर्म का आचरण स्वेच्छामूलक है। इसके लिए पर की आज्ञा कार्यकारी नहीं होती है। इसलिए इच्छा प्रधान होने से सर्वप्रथम इच्छाकार का उपन्यास किया है।
व्रतादिकों में स्खलना होने पर 'मिथ्या दुष्कृत' दिया जाता है। अतः इच्छाकार के बाद मिथ्याकार का पाठ रखा है।
इच्छाकार और मिथ्याकार ये दोनों गुरुवचनों पर विश्वास रखने पर शक्य हैं, अतः मिथ्याकार के बाद तथाकार का विन्यास किया है।
गुरुवचन को स्वीकार करके भी शिष्य का कर्तव्य है कि जब वह उपाश्रय से बाहर जाए तो आज्ञा लेकर जाए। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए तथाकार के बाद आवश्यकी का पाठ रखा है।
- बाहर गया हुआ शिष्य नैषेधिकी पूर्वक ही उपाश्रय में प्रवेश करे। यह संकेत करने के लिए आवश्यकी के बाद नैषेधिकी का उपन्यास किया है।
उपाश्रय में प्रविष्ट शिष्य जो कुछ भी करे वह गुरु की आज्ञा लेकर करे। यह बताने के लिए नैषेधिकी के बाद आप्रच्छना का पाठ रखा है।