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द्रव्यानुयोग—जो श्रुतज्ञान के प्रकाश में जीव-अजीव, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष आदि तत्त्वों को दीपक के सदृश प्रकट करता है, वह द्रव्यानुयोग है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है-८-द्रव्य का द्रव्य में, द्रव्य के द्वारा अथवा द्रव्यहेतुक जो अनुयोग होता है, उसका नाम द्रव्यानुयोग है। इसके अतिरिक्त द्रव्य का पर्याय के साथ अथवा द्रव्य का द्रव्य के ही साथ जो योग (सम्बन्ध) होता है, वह भी द्रव्यानुयोग है। इसी तरह बहुवचन द्रव्यों का द्रव्यों में भी समझना चाहिए।
आगम-साहित्य में कहीं संक्षेप से और कहीं विस्तार से इन अनुयोगों का वर्णन है। आर्य वज्र तक आगमों में अनुयोगात्मक दृष्टि से पृथकता नहीं थी। प्रत्येक सूत्र की चारों अनुयोगों द्वारा व्याख्या की जाती थी। आचार्य भद्रबाहु ने इस सम्बन्ध में लिखा है—कालिक श्रुत अनुयोगात्मक व्याख्या की दृष्टि से अपृथक् थे। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं उनमें चरण-करणानुयोग प्रभृति अनुयोग चतुष्टय के रूप में अविभक्तता थी। आर्य वज्र के पश्चात् कालिक सूत्र और दृष्टिवाद की अनुयोगात्मक पृथकता (विभक्तता) की गई।
___ आचार्य मलयगिरि ने प्रस्तुत विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है—आर्य वज्र तक श्रमण तीक्ष्ण बुद्धि के धनी थे, अतः अनुयोग की दृष्टि से अविभक्त रूप से व्याख्या प्रचलित थी। प्रत्येक सूत्र में चरण-करणानुयोग आदि का अविभागपूर्वक वर्तन था। मुख्यता की दृष्टि से नियुक्तिकार ने यहां पर कालिक श्रुत को ग्रहण किया है अन्यथा अनुयोगों का कालिक-उत्कालिक आदि सभी में अविभाग था।"
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने इस सम्बन्ध में विश्लेषण करते हुए लिखा है—आर्य वज्र तक जब अनुयोग अपृथक् थे तब एक ही सूत्र की चारों अनुयोगों के रूप में व्याख्या होती थी।
अनुयोगों का विभाग कर दिया जाय, उनकी पृथक्-पृथक् छंटनी कर दी जाय तो वहां उस सूत्र में चारों अनुयोग व्यवच्छिन्न हो जायेंगे। इन प्रश्न का समाधान करते हुए भाष्यकार ने लिखा है, जहां किसी एक सूत्र की
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३७. जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च ।
द्रव्यानुयोग-दीपः श्रुतविद्या लोकमातनुते ॥ -रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४६ ३८. दव्वस्स जोऽणुओगो दव्वे दव्वेण दव्वहेऊ वा ।
दव्वस्स पज्जवेण व जोगो, दव्वेण वा जोगो ॥ बहुवयणओऽवि एवं नेओ जो वा कहे अणुवउत्तो । दव्वाणुओग एसो.......
-विशेषावश्यकभाष्य, १३९८-९९ जावंतं अजवइरा अपुहुत्तं कालिआणुओगस्स ।
तेणारेण पुहत्तं कालिअसुइ दिट्ठिवाए अ | -आवश्यकनियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, गाथा १६३, पृ. ३८३ ४०. यावदार्यवज्रा–आर्यवज्रस्वामिनो मुखो महामतयस्तावत्कालिकानुयोगस्य कालिकश्रुतव्याख्यानस्यापृथक्त्वं प्रतिसूत्रं
चरण करणानुयोगादीनामविभागेन वर्तनमासीत्, तदासाधूनां तीक्ष्णप्रज्ञत्वात् । कालिकग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यथा सर्वानुयोगस्यापृथक्त्वमासीत्।।
—आवश्यकनियुक्ति, पृ. ३८३ प्रका. आगमोदय समिति अपुहत्ते अणिओगो चत्तारि दुवार भासए एगो । पुहुत्ताणुआगे करणे ते अत्थ तओवि वोच्छिन्ना ॥ किं वइरेहिं पुहत्तं कयमह तदणंतरेहिं भणियम्मि । तदणंतरेहिं तदभिहिय गहिय सुत्तत्थ सारेहि ॥
-विशेषावश्यकभाष्य, गाथा २२८६-२२८७ [१४]