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________________ सा है। श्वेताम्बर दृष्टि से सर्वप्रथम चरणानुयोग है।८ रत्नकरण्डश्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने चरणानुयोग की परिभाषा करते हुए लिखा है-गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के विधान करने वाले अनुयोग को चरणानुयोग कहते हैं। द्रव्यसंग्रह की टीका में लिखा है—उपासकाध्ययन आदि में श्रावक का धर्म और मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यति का धर्म जहां मुख्यता से कहा गया है, वह चरणानुयोग है। बृहद्रव्यसंग्रह, अनगारधर्मामृत टीका आदि में भी चरणानुयोग की परिभाषा इसी प्रकार मिलती है। आचार सम्बन्धी साहित्य चरणानुयोग में आता है। जिनदासगणि२ महत्तर ने धर्मकथानुयोग की परिभाषा करते हुए लिखा है सर्वज्ञोक्त अहिंसा आदि स्वरूप धर्म का जो कथन किया जाता है अथवा अनुयोग के विचार से जो धर्मसम्बन्धी कथा कही जाती है, वह धर्मकथा है। आचार्य हरिभद्र ने भी अनुयोगद्वार की टीका में अहिंसा लक्षणयुक्त धर्म का जो आख्यान है, उसे धर्मकथा कहा है। महाकवि पुष्पदन्त ने भी लिखा है—जो अभ्युदय, निःश्रेयस् की संसिद्धि करता है और सद्धर्म से जो निबद्ध है, वह सद्धर्मकथा है। धर्मकथानुयोग को ही दिगम्बर परम्परा में प्रथमानुयोग कहा है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में लिखा है—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का परमार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान है, जिसमें एक पुरुष या त्रिषष्टि श्लाघनीय पुरुषों के पवित्र-चरित्र में रत्नत्रय और ध्यान का निरूपण है, वह प्रथमानुयोग है। गणितानुयोग, गणित के माध्यम से जहां विषय को स्पष्ट किया जाता है, दिगम्बर परम्परा में इसके स्थान पर करणानुयोग यह नाम प्रचलित है। करणानुयोग का अर्थ है—लोक-अलोक के विभाग को, युगों के परिवर्तन को तथा चारों गतियों को दर्पण के सदृश प्रकट करने वाले सम्यग्ज्ञान को करणानुयोग कहते हैं। करण शब्द के दो अर्थ हैं— (१) परिणाम और (२) गणित के सूत्र । २८. (क) आवश्यकनियुक्ति ३६३-७७७ (ख) विशेषावश्यकभाष्य २२८४-२२९५ . गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्ति-वृद्धिरक्षाङ्गम् । चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥ रत्नकरण्ड, ४५ ३०. द्रव्यसंग्रह टीका, ४२/१८२/९ ३१. सकलेतरचारित्र-जन्म रक्षा विवृद्धिकृत् । विचारणीयश्चरणानुयोगश्चरणादृतैः ॥ -अनगारधर्मामृत, ३/११ पं. आशाधरजी ३२. धम्मकहा नाम जो अहिंसादिलक्खणं सव्वण्णुपणीयं । धम्म अणयोगं वा कहेइ एसा धम्मकहा ॥ -दशवैकालिकचर्णि, प. २९ ३३. अहिंसालक्षणधर्मान्वाख्यानं धर्मकथा। -अनुयोगद्वार टीका, पृ. १० ३४. यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसार्थ-संसिद्धिरंजसा । सद्धर्मस्तन्निबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता ॥ -महापुराण, महाकवि पुष्पदंत, १/१२० ३५. प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥ -रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ४३ ३६. लोकालोक-विभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । आदर्शमिव तथा मतिरवैति करणानुयोगं च ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ४४ [१३]
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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