SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनुपूर्वीनिरूपण १११ यद्यपि क्षेत्रानुपूर्वी की तरह कालानुपूर्वी के प्रसंग में भी उल्लेख तो द्रव्यविशेष का है, परन्तु यहां समयत्रय आदि रूप कालपर्याय से युक्त द्रव्य ग्रहण किये हैं । इस प्रकार काल की तीन आदि समय रूप पर्याय और उन पर्यायों वाले द्रव्य में अभेद का उपचार करके एवं कालपर्याय को प्रधान मानकर कालपर्यायविशिष्ट द्रव्य में कालानुपूर्वी जानना चाहिए । अनन्तसामयिक कालानुपूर्वी क्यों नहीं ? – सूत्र में तीन समय से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्य को कालापेक्षया आनुपूर्वी रूप में ग्रहण किया है, क्योंकि स्वभाव से ही किसी भी द्रव्य की अनन्त समय की स्थिति नहीं होती है । अर्थात् ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं जिसकी स्थिति अनन्त समय की हो। इसीलिए अनन्त समय की स्थिति वाली कालानुपूर्वी का यहां उल्लेख नहीं किया गया है। अनानुपूर्वी और अवक्तव्य विषयक विशेषता — आनुपूर्वी में तो त्रिसमयस्थितिक से लेकर असंख्यातसमयस्थितिक पर्यन्त परमाणु आदि द्रव्यों को आनुपूर्वी के रूप में ग्रहण किया है। अर्थात् आनुपूर्वी में आद्य इकाई तीन समय है और चरम असंख्यात समय है। लेकिन अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक में यह विशेषता है— अनानुपूर्वी में द्रव्य चाहे परमाणु से लेकर अनन्ताणुक रूप हो, लेकिन उसकी स्थिति यदि एक समय की है तो वह कालापेक्षया अनानुपूर्वी है। इसी प्रकार यदि उसकी स्थिति दो समय प्रमाण है—वह दो समय की स्थिति वाला है तो वह अवक्तव्यक द्रव्य है । एक बहुवचनान्तता का कारण— सूत्रकार ने एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा आनुपूर्वी आदि का निर्देश किया है। उसका कारण यह है कि तीन आदि समयों की स्थिति वाले आनुपूर्वी द्रव्य एक-एक व्यक्ति रूप भी हैं और अनेक अनन्त व्यक्ति रूप भी हैं । इसीलिए तीन आदि समय की स्थिति वाले एक द्रव्य को एक आनुपूर्वी, एक समय की स्थिति वाले एक द्रव्य को एक अनानुपूर्वी और द्विसमय की स्थिति वाले एक द्रव्य को एक अवक्तव्यक कहा है। लेकिन जब वही आनुपूर्वी आदि द्रव्य विशेष-भेद की विवक्षा से अनेक व्यक्ति रूप होते हैं तब बहुवचन की अपेक्षा आनुपूर्वियों, अनानुपूर्वियों और अवक्तव्यकों रूप कहलाते हैं । सूत्र में अर्थपदप्ररूपणता के प्रयोजन रूप में भंगसमुत्कीर्तनता का संकेत किया है, अत: अब भंगसमुत्कीर्तनता का निर्देश करते हैं। (ख) भंगसमुत्कीर्तनता १८६. से किं तं णेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया ? गम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया अत्थि आणुपुव्वी अत्थि अणाणुपुव्वी अत्थि अवत्तव्वए, एवं दव्वाणुपुव्विगमेणं कालाणुपुव्वीए वि ते चेव छव्वीसं भंगा भाणियव्वा जाव से तं गम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया । [१८६] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या स्वरूप है ? १. सूत्र संख्या १८५ के स्थान पर किसी-किसी प्रति में निम्नलिखित सूत्र पाठ है— एआए णं नैगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए किं पओअणं ? एआए णं णेगम - ववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए णेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया कज्जइ ।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy