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अनुयोगद्वारसूत्र
पूर्वादि चार दिशाओं में एक-एक स्थित हैं और इनके बीच में सर्वार्थसिद्ध विमान है। विजयादि पांचों विमानों में सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं और निश्चित रूप से वे मुक्तिपद प्राप्ति के अधिकारी होते हैं।
नव ग्रैवेयक तक विमानों में मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों तरह के जीव उत्पन्न हो सकते हैं।
ईषत्प्राग्भारापृथ्वी अपने प्रान्तभाग में भाराक्रान्त पुरुष की तरह कुछ झुकी हुई होने से ईषत्प्राग्भारा कहलाती है। इसे सिद्धशिला भी कहते हैं।
ऊर्ध्वलोकक्षेत्र सम्बन्धी पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी सम्बन्धी विशेष वक्तव्यता अन्य आगमों से समझ लेनी चाहिए।
__ अब प्रकारान्तर से औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का वर्णन करते हैं। औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के वर्णन का द्वितीय प्रकार
१७६. अहवा ओवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता । तं जहा—पुव्वाणुपुव्वी १ पच्छाणुपुव्वी २ अणाणुपुव्वी ३ ।
[१७६] अथवा औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है। यथा—१. पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चानुपूर्वी और ३. अनानुपूर्वी।
१७७. से किं तं पुव्वाणुपुव्वी ?
पुव्वाणुपुव्वी एगपएसोगाढे दुपएसोगाढे जाव दसपएसोगाढे जाव असंखेजपएसोगाढे । से तं पुव्वाणुपुव्वी ।
[१७७ प्र.] भगवन् ! (औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी सम्बन्धी) पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
[१७७ उ.] आयुष्मन् ! एकप्रदेशावगाढ, द्विप्रदेशावगाढ यावत् दसप्रदेशावगाढ यावत् असंख्यातप्रदेशावगाढ के क्रम से क्षेत्र के उपन्यास को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं।
१७८. से किं तं पच्छाणुपुव्वी ? पच्छाणुपुव्वी असंखेजपएसोगाढे जाव एगपएसोगाढे । से तं पच्छाणुपुव्वी । [१७८ प्र.] भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
[१७८ उ.] आयुष्मन् ! असंख्यातप्रदेशावगाढ यावत् एकप्रदेशावगाढ रूप में व्युत्क्रम से क्षेत्र का उपन्यास पश्चानुपूर्वी है।
१७९. से किं तं अणाणुपुव्वी ?
अणाणुपुव्वी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए असंखेजगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुव्वी । से तं ओवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी । से तं खेत्ताणुपुव्वी ।
[१७९ प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
[१७९ उ.] आयुष्मन् ! एक से प्रारंभ कर एकोत्तर वृद्धि द्वारा असंख्यात प्रदेश पर्यन्त की स्थापित श्रेणी का परस्पर गुणा करने से निष्पन्न राशि में से आद्य और अंतिम इन दो रूपों को कम करने पर क्षेत्रविषयक अनानुपूर्वी बनती है।