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आनुपूर्वीनिरूपण
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पुव्वाणुपुव्वी सोहम्मे १ ईसाणे २ सणंकुमारे ३ माहिंदे ४ बंभलोए ५ लंतए ६ महासुक्के ७ सहस्सारे ८ आणते ९ पाणते १० आरणे ११ अच्चुते १२ गेवेजविमाणा १३ अणुत्तरविमाणा १४ ईसिपब्भारा १५ । से तं पुव्वाणुपुव्वी ।
[१७३ प्र.] भगवन् ! ऊर्ध्वलोकक्षेत्रविषयक पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? __ [१७३ उ.] आयुष्मन् ! १. सौधर्म, २. ईशान, ३. सनत्कुमार, ४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्मलोक, ६. लान्तक, ७. महाशुक्र, ८. सहस्रार, ९. आनत, १०. प्राणत, ११. आरण, १२. अच्युत, १३. ग्रैवेयकविमान, १४. अनुत्तरविमान, १५. ईषत्प्राग्भारापृथ्वी, इस क्रम से ऊर्ध्वलोक के क्षेत्रों का उपन्यास करने को ऊर्ध्वलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी कहते हैं।
१७४. से किं तं पच्छाणपुव्वी ? पच्छाणुपुव्वी ईसिपब्भारा १५ जाव सोहम्मे १ । से तं पच्छाणुपुव्वी । [१७४ प्र.] भगवन् ! ऊर्ध्वलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
[१७४ उ.] आयुष्मन् ! ईषत्प्राग्भाराभूमि से सौधर्म कल्प तक के क्षेत्रों का व्युत्क्रम से उपन्यास करने को ऊर्ध्वलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी कहते हैं।
१७५. से किं तं अणाणुपुव्वी ?
अणाणुपुव्वी एयाए चेव एगादिगाए एगुत्तरियाए पण्णरसगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुव्वी ।
[१७५ प्र.] भगवन् ! ऊर्ध्वलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी किसे कहते हैं ?
[१७५ उ.] आयुष्मन् ! आदि में एक रखकर एकोत्तरवृद्धि द्वारा निर्मित पन्द्रह पर्यन्त की श्रेणी में परस्पर गुणा करने पर प्राप्त राशि में से आदि और अंत के दो भंगों को कम करने पर शेष भंगों को ऊर्ध्वलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी कहते हैं। __ विवेचन— यहां ऊर्ध्वलोकक्षेत्रानुपूर्वी का स्वरूप स्पष्ट किया है।
सर्वप्रथम सौधर्मकल्प का उपन्यास इसलिए किया है कि वह प्ररूपणकर्ता से सर्वाधिक निकट है। सौधर्म नाम का कारण यह है कि उस क्षेत्र सम्बन्धी (बत्तीस लाख) विमानों में सौधर्मावतंसकविमान सर्वश्रेष्ठ है और वह इस विमान से युक्त है। इसी प्रकार से ईशान से लेकर अच्युत तक के कल्पों के ईशानावतंसक आदि विमानों के लिए भी समझना चाहिए कि उन-उन कल्पों में वे-वे विमान सर्वश्रेष्ठ हैं, अतएव ये कल्प उन्हीं नामों वाले हैं।
सौधर्म से लेकर अच्युत पर्यन्त के बारह देवलोकों में इन्द्र, सामानिक आदि वर्गात्मक भेद होने से वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं।
ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान कल्पातीत संज्ञक हैं। इनमें इन्द्र आदि भेदरूप कल्प नहीं पाया जाता है।
लोक रूप पुरुष की ग्रीवा के स्थानापन्न विमानों की ग्रैवेयक संज्ञा है। इनकी कुल संख्या नौ है और अधो, मध्य और ऊर्ध्व इन तीन वर्गों में ये तीन-तीन की संख्या में स्थित हैं।
अनुत्तरविमान अन्य देवविमानों से अनुत्तर-श्रेष्ठतम होने से अनुत्तर कहलाते हैं । यह अनुत्तर विमान कुल पांच हैं, जिनके नाम विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध हैं। ये विजयादि अपराजित पर्यन्त चार विमान