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अनुयोगद्वारसूत्र
पर्यन्त की श्रेणी स्थापित कर उनका परस्पर गुणाकार करने पर निष्पन्न राशि में से आद्य और अन्तिम इन दो भंगों को छोड़कर मध्य के समस्त भंग मध्यलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी कहलाते हैं।
विवेचन— प्रस्तुत सूत्रों में मध्यलोकक्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण किया है।
मध्यलोकवर्ती असंख्यात द्वीप-समुद्रों के मध्य में पहला द्वीप जम्बूद्वीप है और उसके बाद यथाक्रम से आगे-आगे समुद्र और द्वीप हैं। उनमें प्रथम द्वीप का नाम जम्बूवृक्ष से उपलक्षित होने से जम्बूद्वीप है और असंख्यात द्वीप-समुद्रों के अन्त में स्वयंभूरमण नामक समुद्र है। ये सभी द्वीप-समुद्र दूने-दूने विस्तार वाले, पूर्व-पूर्व द्वीप समुद्र को वेष्टित किए हुए और चूड़ी के आकार वाले हैं। लेकिन जम्बूद्वीप लवणसमुद्र से घिरा हुआ थाली के आकार का है। इसके द्वारा अन्य कोई समुद्र वेष्टित नहीं है। इन असंख्यात द्वीप-समुद्रों की निश्चित संख्या अढ़ाई उद्धार सागरोपम के समयों की संख्या के बराबर है। मध्यलोक का भी मध्य यह जम्बूद्वीप एक लाख योजन लम्बाचौड़ा है और इसके भी मध्य में एक लाख योजन ऊंचा सुमेरुपर्वत है जो अधो, मध्य एवं ऊर्ध्व लोक के विभाग का कारण है।
गाथोक्त पुष्कर से लेकर स्वयंभूरमण तक के शब्द क्रमशः उस-उस नाम वाले द्वीप और समुद्र दोनों के वाचक जानना चाहिए।
गाथोक्त द्वीप संख्या में भिन्नता— गाथा में नन्दीश्वरद्वीप के अनन्तर अरुणवर, कुंडल और रुचक इन तीन नामों का उल्लेख है, लेकिन अनुयोगद्वारचूर्णि में अरुणवर, अरुणावास, कुण्डलवर, शंखवर, रुचकवर इन पांच नामों को गिनाया है। इस प्रकार चूर्णि के मत से रुचकवर का क्रम तेरहवां और गाथानुसार ग्यारहवां है।
समुद्रीय जलों का स्वाद- लवणसमुद्र लवण के समान रस वाले जल से पूरित है। कालोद एवं पुष्करादि का जल शुद्धोदक के रस-समान रस वाला है। वारुणोद वारुणीरसवत्, क्षीरोद क्षीररस जैसे, घृतोद घृत जैसे तथा इक्षुरससमुद्र इक्षुरस जैसे स्वाद से युक्त जल वाला है। इसके बाद के अन्तिम स्वयंभूरमणसमुद्र को छोड़कर शेष सभी समुद्र इक्षुरस जैसे स्वाद वाले जल से युक्त हैं। स्वयंभूरमणसमुद्र के जल का स्वाद शुद्ध जल जैसा है।
सभी द्वीप-समुद्रों का नामोल्लेख क्यों नहीं?— सूत्रकार ने असंख्यात द्वीप-समुद्रों के नामों में से कतिपय का तो उल्लेख किया किन्तु उनके अतिरिक्त अंतरालवर्ती शेष द्वीप-समुद्रों का नामोल्लेख इसलिए नहीं किया है कि वे असंख्यात हैं किन्तु लोक में शंख, ध्वज, स्वस्तिक, श्रीवत्स, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि जितने भी पदार्थों के शुभ नाम हो सकते हैं, उन सबसे उपलक्षित अन्तरालवर्ती द्वीप-समुद्रों के नाम जान लेना चाहिए। ऊर्ध्वलोकक्षेत्रानुपूर्वी
१७२. उड्डलोगखेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता । तं जहा-पुव्वाणुपुव्वी १ पच्छाणुपुव्वी २ अणाणुपुव्वी ३ । ___ [१७२] ऊर्ध्वलोकक्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की है। वह इस रूप से—१. पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चानुपूर्वी और ३. अनानुपूर्वी।
१७३. से किं तं पुव्वाणुपुव्वी ?