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________________ आनुपूर्वीनिरूपण जंबुद्दीवाओ खलु निरंतरा, सेसया असंखइमा । भुयगवर - कुसवरा वि य कोंचवराऽऽभरणमाईया ॥ १२ ॥ आभरण-वत्थ-गंधे-उप्पल-तिलये य पउम - निहि - रयणे । वासहर - दह - णदीओ विजया वक्खार - कप्पिंदा ॥ १३ ॥ कुरु-मंदर - आवासा देवे नागे जक्खे तं वा । कूडा नक्खत्त- चंद सूरा य । भूये य सयंभुरमणे य ॥ १४॥ - [१६९ प्र.] भगवन् ! मध्यलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [१६९ उ.] आयुष्मन् ! मध्यलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार है— १०५ जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखंडद्वीप, कालोदधिसमुद्र, पुष्करद्वीप, (पुष्करोद) समुद्र, वरुणद्वीप, वरुणोदसमुद्र, क्षीरद्वीप, क्षीरोदसमुद्र, घृतद्वीप, घृतोदसमुद्र, इक्षुवरद्वीप, इक्षुवरसमुद्र, नन्दीद्वीप, नन्दीसमुद्र, अरुणवरद्वीप, अरुणवरसमुद्र, कुण्डलद्वीप, कुण्डलसमुद्र, रुचकद्वीप, रुचकसमुद्र । ११ । जम्बूद्वीप से लेकर ये सभी द्वीप - समुद्र बिना किसी अन्तर के एक-दूसरे को घेरे हुए स्थित हैं। इनके आगे असंख्यात असंख्यात द्वीप समुद्रों के अनन्तर भुजगवर तथा इसके अनन्तर असंख्यात द्वीप - समुद्रों के पश्चात् कुशवरद्वीप समुद्र हैं और इसके बाद भी असंख्यात द्वीप- समुद्रों के पश्चात् क्रौंचवर द्वीप हैं। पुनः असंख्यात द्वीपसमुद्रों के पश्चात् आभरणों आदि के सदृश शुभ नाम वाले द्वीप - समुद्र हैं । १२ ॥ यथा— आभरण, वस्त्र, गंध, उत्पल, तिलक, पद्म, निधि, रत्न, वर्षधर, ह्रद, नदी, विजय, वक्षस्कार, कल्पेन्द्र । १३ । 1 कुरु, मंदर, आवास, कूट, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्यदेव, नाग, यक्ष, भूत आदि के पर्यायवाचक नामों वाले द्वीप - समुद्र असंख्यात हैं और अन्त में स्वयंभूरमणद्वीप एवं स्वयंभूरमणसमुद्र हैं । यह मध्यलोकक्षेत्रानुपूर्वी की वक्तव्यता १७०. से किं तं पच्छाणुपुव्वी ? पच्छाणुपुव्वी सयंभुरमणे य भूए य जाव जंबुद्दीवे । से तं पच्छाणुपुव्वी । [१७० प्र.] भगवन् ! मध्यलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [१७० उ.] आयुष्मन् ! स्वयंभूरमणसमुद्र, भूतद्वीप आदि से लेकर जम्बूद्वीप पर्यन्त व्युत्क्रम से द्वीप - समुद्रों के उपन्यास करने को मध्यलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी कहते हैं । १७१. से किं तं अणाणुपुव्वी ? अणाणुपुव्वी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए असंखेज्जगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुव्वी । [१७१ प्र.] भगवन् ! मध्यलोकक्षेत्र अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [ १७१ उ.] आयुष्मन् ! मध्यलोकक्षेत्र अनानुपूर्वी की वक्तव्यता इस प्रकार है— एक से प्रारम्भ कर असंख्यात
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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