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अनुयोगद्वारसूत्र १६६. से किं तं पच्छाणुपुव्वी ? पच्छाणुपुव्वी तमतमा ७ जाव रयणप्पभा १ । से तं पच्छाणुपुव्वी । [१६६ प्र.] भगवन् ! अधोलोकक्षेत्रपश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
[१६६ उ.] आयुष्मन् ! तमस्तमःप्रभा से लेकर यावत् रत्नप्रभा पर्यन्त व्युत्क्रम से (नरकभूमियों का) उपन्यास करना अधोलोकपश्चानुपूर्वी कहलाती है।
१६७. से किं तं अणाणुपुव्वी ?
अणाणुपुव्वी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए सत्तगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुव्वी ।
[१६७ प्र.] भगवन् ! अधोलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
[१६७ उ.] आयुष्मन् ! अधोलोकक्षेत्रअनानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार है—आदि में एक स्थापित कर सात पर्यन्त एकोत्तर वृद्धि द्वारा निर्मित श्रेणी में परस्पर गुणा करने से निष्पन्न राशि में से प्रथम और अन्तिम दो भंगों को कम करने पर यह अनानुपूर्वी बनती है।
विवेचन— प्रस्तुत चार सूत्रों में अधोलोकक्षेत्रानुपूर्वी का वर्णन किया है। अधोलोक में रत्नप्रभा आदि सात नरकपृथ्वियां हैं।
रत्नप्रभा आदि नाम का कारण- पहली नरकपृथ्वी का नाम रत्नप्रभा इसलिए है कि वहां नारक जीवों के आवास स्थानों से अतिरिक्त स्थानों में इन्द्रनील आदि अनेक प्रकार के रत्नों की प्रभा—कान्ति का सद्भाव है। शर्कराप्रभा नामक द्वितीय पृथ्वी में शर्करा-पाषाणखंड जैसी प्रभा है। बालुकाप्रभा में बालू-रेती जैसी प्रभा है। चौथी पंकप्रभापृथ्वी में कीचड़ जैसी प्रभा है। धूमप्रभा, तमःप्रभा और तमस्तमःप्रभा पृथ्वियों में क्रमशः धूम-धुंआ, अंधकार और गाढ़ अंधकार जैसी प्रभा है। इसी कारण सातों नरकपृथ्वियां सार्थक नाम वाली हैं। ____ अनानुपूर्वी में एक आदि सात पर्यन्त सात अंकों का परस्पर गुणा करने पर ५०४० भंग होते हैं। इनमें से आदि का भंग पूर्वानुपूर्वी और अंतिम भंग पश्चानुपूर्वी रूप होने से इन दो को छोड़कर शेष ५०३८ भंग अनानुपूर्वी के हैं। तिर्यग् (मध्य) लोकक्षेत्रानुपूर्वी
__ १६८. तिरियलोयखेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता । तं जहा—पुव्वाणुपुव्वी १ पच्छाणुपुव्वी २ अणाणुपुव्वी ३ ।
[१६८] तिर्यग् (मध्य) लोकक्षेत्रानुपूर्वी के तीन भेद कहे गये हैं। वे इस प्रकार—१. पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चानुपूर्वी, ३. अनानुपूर्वी।
१६९. से किं तं पुव्वाणुपुव्वी ? पुव्वाणुपुवी
जंबुद्दीवे लवणे धायइ-कालोय-पुक्खरे वरुणे । खीर-घय-खोय-नंदी-अरुणवरे कुंडले रुयगे ॥ ११॥