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________________ आनुपूर्वीनिरूपण १०३ अधोलोक है। इसी प्रकार उपरितन प्रतर से लेकर ऊपर के नौ सौ योजन छोड़कर ऊपर कुछ कम सात राजू लम्बा ऊर्ध्वलोक है। इन अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के बीच में अठारह सौ योजन प्रमाण ऊंचाई वाला तिर्यग्लोकमध्यलोक है। अधोलोक आदि नामकरण का हेतु- सामान्य रूप से तो मेरुपर्वत से नीचे का भाग अधोलोक, ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक और बराबर समरेखा में तिर्छा फैला क्षेत्र तिर्यग्लोक-मध्यलोक के नामकरण का हेतु है। लेकिन विशेषापेक्षया 'कारण यह है-'अधः' शब्द अशुभ अर्थ का वाचक है। अतएव क्षेत्रस्वभाव से अधिकतर अशुभ द्रव्यों का परिणमन अधोलोक संज्ञा का हेतु है तथा ऊर्ध्व शब्द शुभ अर्थ का वाचक है। अतएव ऊर्ध्वलोक में क्षेत्रप्रभाव से द्रव्यों का परिणमन प्रायः शुभ हुआ करता है। अतएव शुभ परिणाम वाले द्रव्यों के सम्बन्ध में ऊर्ध्वलोक यह नाम है। तिर्यक् शब्द का एक अर्थ मध्यम भी होता है। अत: इस मध्यलोक में क्षेत्र-प्रभाव से प्रायः मध्यम परिणाम वाले द्रव्य होते हैं। इसलिए इन मध्यम परिणाम रूप द्रव्यों के संयोग वाले लोक का नाम मध्यलोक या तिर्यक्लोक है। अथवा अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के मध्य में स्थित होने से यह मध्यलोक कहलाता है। अधोलोक आदि का क्रमविन्यास- सूत्र में सर्वप्रथम अधोलोक के उपन्यास का कारण यह है कि वहां पर प्रायः जघन्य परिणाम वाले द्रव्यों का ही सम्बन्ध रहा करता है। इसीलिए जिस प्रकार चौदह गुणस्थानों में जघन्य होने से सर्वप्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान का उपन्यास किया जाता है, उसी प्रकार यहां पर भी जघन्य होने से अधोलोक का सर्वप्रथम उपन्यास किया है तथा मध्यम परिणाम वाले द्रव्यों के सम्बन्ध के कारण तत्पश्चात् तिर्यक्लोक का और उत्कृष्ट परिणाम वाले द्रव्यों के सम्बन्ध के कारण अन्त में ऊर्ध्वलोक का उपन्यास किया है। यह कथन पूर्वानुपूर्वी की अपेक्षा जानना चाहिए। पश्चानुपूर्वी में पूर्वानुपूर्वी का व्युत्क्रम (विपरीत क्रम) है। अनानुपूर्वी में इन तीन पदों के छह भंग होते हैं। अनानुपूर्वी में आदि और अंत भंग छोड़ने का कारण यह है कि आदि का भंग पूर्वानुपूर्वी का और अंतिम भंग पश्चानुपूर्वी का है। अब पूर्वोक्त औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का लोकत्रयापेक्षा पृथक्-पृथक् वर्णन करते हैं। अधोलोकक्षेत्रानुपूर्वी १६४. अहोलोयखेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता । तं जहा—पुव्वाणुपुव्वी १ पच्छाणुपुव्वी २ अणाणुपुव्वी ३ । [१६४] अधोलोकक्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही है। यथा—१. पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चानुपूर्वी और ३. अनानुपूर्वी। १६५. से किं तं पुव्वाणुपुव्वी ? पुव्वाणुपुव्वी रयणप्पभा १ सक्करप्पभा २ वालुयप्पभा ३ पंकप्पभा ४ धूमप्पभा ५ तमप्पभा ६ तमतमप्पभा ७ । से तं पुव्वाणुपुव्वी । __ [१६५ प्र.] भगवन् ! अधोलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [१६५ उ.] आयुष्मन् ! १. रत्नप्रभा, २. शर्कराप्रभा, ३. बालुकाप्रभा, ४. पंकप्रभा, ५. धूमप्रभा, ६. तमःप्रभा, ७. तमस्तमःप्रभा, इस क्रम से (सात नरकभूमियों के) उपन्यास करने को अधोलोकक्षेत्रपूर्वानुपूर्वी कहते हैं।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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