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________________ १०२ अनुयोगद्वारसूत्र [१६० उ.] आयुष्मन् ! औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी के तीन भेद हैं। वे इस प्रकार—१. पूर्वानुपूर्वी, २. पश्चानुपूर्वी और ३. अनानुपूर्वी। १६१. से किं तं पुव्वाणुपुव्वी ? पुव्वाणुपुव्वी अहोलोए १ तिरियलोए २ उड्डलोए ३ । से तं पुव्वाणुपुव्वी । [१६१ प्र.] भगवन् ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [१६१ उ.] आयुष्मन् ! १. अधोलोक, २. तिर्यक्लोक और ३. ऊर्ध्वलोक, इस क्रम से (क्षेत्र-लोक का) निर्देश करने को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। १६२. से किं तं पच्छाणुपुव्वी ? पच्छाणुपुव्वी उड्डलोए ३ तिरियलोए २ अहोलोए १ । से तं पच्छाणुपुव्वी । [१६२ प्र.] भगवन् ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [१६२ उ.] आयुष्मन् ! पूर्वानुपूर्वी के क्रम के विपरीत १. ऊर्ध्वलोक, २. तिर्यक्लोक, ३. अधोलोक, इस प्रकार का क्रम पश्चानुपूर्वी है। १६३. से किं तं अणाणुपुव्वी ? अणाणुपुव्वी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए तिगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुव्वी । [१६३ प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी किसे कहते हैं ? [१६३ उ.] आयुष्मन् ! एक से प्रारम्भ कर एकोत्तर वृद्धि द्वारा निर्मित तीन पर्यन्त की श्रेणी में परस्पर गुणा करने पर निष्पन्न अन्योन्याभ्यस्त राशि में से आद्य और अंतिम दो भंगों को छोड़कर जो राशि उत्पन्न हो वह अनानुपूर्वी है। विवेचन— इन तीन सूत्रों में औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का स्वरूप बतलाया है। औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण में जैसे द्रव्यानुपूर्वी का अधिकार होने से धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों को पूर्वानुपूर्वी आदि रूप में उदाहृत किया है, वैसे ही यहां क्षेत्रानुपूर्वी का प्रकरण होने से अधोलोक आदि क्षेत्र पूर्वानुपूर्वी आदि के रूप में उदाहत हुए हैं। ___ अधोलोक आदि भेद का कारण— लोक के अधोलोक आदि तीन भेद होने का मुख्य आधार मध्यलोक के बीचोंबीच स्थित सुमेरुपर्वत है। इसके नीचे का भाग अधोलोक और ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक तथा दोनों के बीच में मध्यलोक है। मध्यलोक का तिर्छा विस्तार अधिक होने से इसे तिर्यक्लोक भी कहते हैं। ___ अधोलोक आदि का प्रारम्भ कहाँ से ? — जैन भूगोल के अनुसार लोक ऊपर से नीचे तक लम्बाई में चौदह रज्जू है और विस्तार में अनियत है। यह धर्मास्तिकाय आदि षड्द्रव्यों से व्याप्त है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी पर बहु सम भूभाग वाले मेरुपर्वत के मध्य में आकाश के दो-दो प्रदेशों के वर्ग (प्रतर) में आठ रुचक प्रदेश हैं। उनमें से एक अधस्तन प्रतर से लेकर नीचे के नौ सौ योजन गहराई को छोड़कर उससे नीचे
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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