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अनुयोगद्वारसूत्र [१५६ प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों के कितनेवें भाग प्रमाण होते हैं ? [१५६ उ.] आयुष्मन् ! द्रव्यानुपूर्वी जैसा ही कथन तीनों द्रव्यों के लिए यहां भी समझना चाहिए।
विवेचन- सूत्र में द्रव्यानुपूर्वी के अतिदेश द्वारा क्षेत्रानुपूर्वी के द्रव्यों की भागप्ररूपणा का कथन किया है। इसका भाव यह है कि अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात भागों से अधिक हैं तथा शेष द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यों के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात भागाधिक कैसे?— आनुपूर्वी द्रव्य को असंख्यात भागों से अधिक मानने पर जिज्ञासु का प्रश्न है___यह पूर्व में कहा है कि तीन आदि प्रदेशों में स्थित द्रव्य आनुपूर्वी हैं, एक-एक प्रदेश में स्थित अनानुपूर्वी
और दो-दो प्रदेशों में स्थित द्रव्य अवक्तव्यक हैं और ये तीनों द्रव्य सर्वलोकव्यापी हैं। अतः विचार करने पर आनुपूर्वी द्रव्य सबसे अल्प सिद्ध होते हैं। वह इस प्रकार—लोक असंख्यातप्रदेशी है। लेकिन उन असंख्यात प्रदेशों को असत्कल्पना से ३० मानकर उन प्रदेशों के स्थान पर ३० रखें। इन तीस प्रदेशों में एक-एक अनानुपूर्वी द्रव्य अवगाहित है, अतः अनानुपूर्वी द्रव्यों की संख्या ३० तथा एक-एक अवक्तव्यक द्रव्य लोक के दो-दो प्रदेशों में अवगाढ होने के कारण उनकी संख्या १५ तथा आनुपूर्वी द्रव्य लोक के तीन-तीन प्रदेशों में अवगाढ होने से उनकी संख्या १० आती है। बहुत से आनुपूर्वी द्रव्य तीन से लेकर असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ हैं, अतः उनकी संख्या और भी कम होनी चाहिए। इस प्रकार विचार करने पर वे कम ही प्राप्त होते हैं।
उत्तर यह है कि जो आकाशप्रदेश एक आनुपूर्वी द्रव्य से अवगाढ होते हैं, वे ही यदि अन्य आनुपूर्वी द्रव्यों से अवगाढ नहीं हों तो पूर्वोक्त कथन युक्तिसंगत माना जा सकता है, परन्तु ऐसा है नहीं। क्योंकि एक आनुपूर्वी द्रव्य में जो तीन आकाशप्रदेश उपयुक्त होते हैं, वे ही तीन प्रदेश अन्य-अन्य आनुपूर्वी द्रव्यों द्वारा ही अवगाढ होते हैं। इसलिए लोक का एक-एक प्रदेश अनेक त्रिकसंयोगी आनुपूर्वी द्रव्यों का आधार होता है। इसी प्रकार से चतु:संयोगी यावत् असंख्यात संयोगी आनुपूर्वी द्रव्यों के विषयों में भी जानना चाहिए। ___इस प्रकार एक-एक आकाशप्रदेश अनेकानेक त्रि-अणुकादि आनुपूर्वी द्रव्यों से संयुक्त होता है। आनुपूर्वी द्रव्य रूप आधेय के भेद से प्रत्येक प्रदेश रूप आधार का भी भेद हो जाता है। क्योंकि आकाशप्रदेश जिस स्वरूप से एक आधेय से उपयुक्त होते हैं, उसी स्वरूप से वे दूसरे आधेय से उपयुक्त नहीं होते हैं। यदि ऐसा ही माना जाये कि आकाशप्रदेश जिस स्वरूप से एक आधेय से संयुक्त होते हैं, उसी स्वरूप से वे अन्य आधेय से भी संयुक्त होते हैं तो एक आधार में उनकी अवगाहना होने से उन अनेक आधेयों में घट में घट के स्वरूप की तरह एकता प्रसक्त होगी। इसलिए अपने स्वरूप की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेशी लोक में जितने भी त्रिक्संयोगादि से लेकर असंख्यात संयोग पर्यन्त के संयोग हैं, उतने ही आनुपूर्वी द्रव्य हैं। ये आनुपूर्वी द्रव्य तीन आदि संयोगों के बहुत होने के कारण बहुसंख्या वाले हैं और अवक्तव्यक द्रव्य द्विक संयोगों के कम होने के कारण कम हैं तथा अनानुपूर्वीद्रव्य लोकप्रदेशों की संख्या के बराबर होने के कारण उनसे भी कम ही हैं। अनुगमगत भावप्ररूपणा
१५७. णेगम-ववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाई कयरम्मि भावे होज्जा ?