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________________ ९४ अनुयोगद्वारसूत्र [१५२-२ प्र.] नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य के विषय में भी यही प्रश्न है। [१५२-२ उ.] आयुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा संख्यातवें भाग में, संख्यात भागों में, असंख्यात भागों में अथवा सर्वलोक में अवगाढ नहीं है किन्तु असंख्यातवें भाग में है तथा अनेक द्रव्यों की अपेक्षा सर्वलोक में व्याप्त हैं। (३) एवं अवत्तव्वगदव्वाणि वि भाणियव्वाणि । [१५२-३] अवक्तव्यक द्रव्यों के लिए भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विवेचन— सूत्र में एक और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा क्षेत्रानुपूर्वी के द्रव्यों की क्षेत्रप्ररूपणा की है। उसका आशय यह है—एक आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्य की अपेक्षा तो लोक के संख्यातवें या असंख्यातवें भाग में, संख्यात भागों या असंख्यात भागों में रहता है और देशोन लोक में भी रहता है। इसका कारण यह है कि स्कन्ध द्रव्यों की परिणमनशक्ति विचित्र प्रकार की होती है। अत: विचित्र प्रकार की परिणमनशक्ति वाले होने के कारण स्कन्ध द्रव्यों का अवगाह लोक के संख्यात आदि भागों में होता है। क्योंकि विशिष्ट क्षेत्र में अवगाह से उपलक्षित हुए स्कन्ध द्रव्यों को ही क्षेत्रानुपूर्वी रूप से कहा गया है। प्रश्न- क्षेत्रानुपूर्वी के प्रसंग में एक द्रव्य की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य को देशोन लोक में अवगाढ होना बताया है किन्तु द्रव्यानुपूर्वी में अनन्तानन्त परमाणुओं से निष्पन्न एवं पुद्गलद्रव्य के सबसे बड़े स्कन्ध रूप अचित्त महास्कन्ध को सर्वलोकव्यापी कहा है। इस प्रकार अचित्त महास्कन्ध की अपेक्षा एक आनुपूर्वी द्रव्य समस्त लोक में व्याप्त होता है। अत: यहां (क्षेत्रानुपूर्वी में) जो एक आनुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा देशोन लोक में अवगाहना कही है, वह युक्तियुक्त कैसे है ? उत्तर- इस जिज्ञासा के समाधान के लिए यह समझना चाहिए कि यह लोक आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों से सदा व्याप्त है, अशून्य है। अतएव यदि आनुपूर्वी द्रव्य को सर्वलोकव्यापी माना जाये तो फिर अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के ठहरने के लिए स्थान न होने के कारण उनका अभाव मानना पड़ेगा। किन्तु जब देशोन लोक में एक आनुपूर्वी द्रव्य व्याप्त होकर रहता है, ऐसा मानते हैं तब अचित्त महास्कन्ध से पूरित हुए लोक में कम-से-कम एक प्रदेश और द्विप्रदेश ऐसे भी रह जाते हैं जो क्रमशः अनानुपूर्वी द्रव्य के विषयरूप से तथा अवक्तव्यक द्रव्य के विषयरूप से विवक्षित हो जाते हैं। इन एक और दो प्रदेशों में आनुपूर्वी द्रव्य का सद्भाव रहता है तो भी अप्रधान होने से उसकी नहीं किन्तु अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की प्रधानता होने से विवक्षा की जाती है। इसीलिए एक आनुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा से देशोन लोक में अवगाहित कहा गया है। सारांश यह है कि क्षेत्रानुपूर्वी में यदि लोक के समस्त प्रदेश आनुपूर्वी रूप मान लिये जायें तो उस स्थिति में अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक प्रदेश कौन से होंगे जिनमें अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य ठहर सकें ? अत: यह मानना चाहिए कि क्षेत्रानुपूर्वी में एक प्रदेश अनानुपूर्वी का विषय है और दो प्रदेश अवक्तव्यक के विषय हैं। अतः अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के विषयभूत प्रदेश को छोड़कर शेष समस्त प्रदेश आनुपूर्वी रूप हैं । इस प्रकार क्षेत्रानुपूर्वी में एक आनुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा देशोन समस्त लोक में आनुपूर्वी द्रव्य अवगाढ हैं, यह जानना चाहिए। एक अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में अवगाही इसलिए माना है कि अनानुपूर्वी रूप से वही द्रव्य विवक्षित हुआ है जो लोक के एक प्रदेश में अवगाढ हो और लोक का एक प्रदेश लोक का असंख्यातवां
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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