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________________ आनुपूर्वीनिरूपण नो संखेज्जाई नो अणंताई, नियमा असंखेज्जाई । एवं दोणि वि । [१५१ प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? [१५१ उ.] आयुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्य न तो संख्यात हैं और न अनन्त हैं किन्तु नियमतः असंख्यात हैं। इसी प्रकार दोनों – अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के लिए भी समझना चाहिए। ९३ विवेचन — सूत्र में क्षेत्र की अपेक्षा आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का प्रमाण असंख्यात बतलाया है। क्योंकि आकाश के तीन प्रदेशों में स्थित द्रव्य क्षेत्र की अपेक्षा आनुपूर्वी रूप हैं और तीन आदि प्रदेश वाले स्कन्धों के आधारभूत क्षेत्रविभाग असंख्यातप्रदेशी लोक में असंख्यात हैं। इसलिए द्रव्य की अपेक्षा बहुत आनुपूर्वी द्रव्य भी आकाश रूप क्षेत्र के तीन प्रदेशों में तीन, चार, पांच, छह आदि से लेकर अनन्तप्रदेश (परमाणु) वाले अनेक आनुपूर्वीद्रव्य अवगाढ होंकर रहते हैं। अतः ये सब द्रव्य तुल्यप्रदेशावगाही होने के कारण एक हैं। क्षेत्रानुपूर्वी में लोक के ऐसे त्रिप्रदेशात्मक विभाग असंख्यात हैं । इसलिए आनुपूर्वी द्रव्य भी तत्तुल्य संख्या वाले होने के कारण असंख्यात होते हैं। इसी प्रकार आनुपूर्वी द्रव्य की तरह अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य भी असंख्यात हैं । तात्पर्य यह है कि लोक के एक-एक प्रदेश में अवगाही अनेक द्रव्य क्षेत्र की अपेक्षा एक ही अनानुपूर्वी रूप हैं और असंख्यात इसलिए हैं कि लोक असंख्यातप्रदेशी है और लोक के एक-एक प्रदेश में ये एक - एक रहते हैं तथा दो प्रदेशों में स्थित बहुत भी द्रव्य क्षेत्र की अपेक्षा अवक्तव्यक द्रव्य हैं। क्योंकि आकाश के दो प्रदेश रूप विभाग असंख्यात होते हैं, इसलिए आधार की अपेक्षा तदवगाही द्रव्य भी असंख्यात हैं। क्षेत्रानुपूर्वी की अनुगमान्तर्वर्ती क्षेत्रप्ररूपणा १५२. ( १ ) णेगम - ववहाराणं खेत्ताणुपुव्वीदव्वाइं लोगस्स कतिभागे होज्जा ? किं संखिज्जइभागे वा होज्जा ? असंखेज्जइभागे वा होज्जा ? जाव सव्वलोए वा होज्जा ? एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागे वा होज्जा असंखेज्जइभागे वा होज्जा संखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा असंखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा देसूणे वा लोए होज्जा, णाणादव्वाई पंडुच्च णियमा सव्वलोए होज्जा । [१५२-१ प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत क्षेत्रानुपूर्वी द्रव्य लोक के कितनेवें भाग में रहते हैं. क्या संख्यातवें भाग में, असंख्यातवें भाग में यावत् सर्वलोक में रहते हैं ? [१५२ - १ उ.] आयुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग में, असंख्यातवें भाग में, संख्यातभागों में, असंख्यात भागों में अथवा देशोन लोक में रहते हैं, किन्तु विविध द्रव्यों की अपेक्षा नियमतः सर्वलोकव्यापी हैं । (२) अणाणुपुव्वीदव्वाणं पुच्छा, एगं दव्वं पडुच्च नो संखिज्जतिभागे होज्जा असंखिज्जतिभागे होजा नो संखेज्जेसु० नो असंखेज्जेसु० नो सव्वलोए होजा, नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा ।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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