________________
आनुपूर्वीनिरूपण
भाग है। ___नाना अनानुपूर्वी द्रव्य सर्वलोकव्यापी इसलिए माने हैं कि एक-एक प्रदेश में अवगाढ अनानुपूर्वी द्रव्यों के भेद समस्त लोक को व्याप्त किये हुए हैं। ___अवक्तव्यक द्रव्यों की वक्तव्यता भी अनानुपूर्वी द्रव्यों के समान कथन करने का आशय यह है कि एक अवक्तव्यक द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में अवगाहित रहता है। क्योंकि लोक के प्रदेशद्वय में अवगाढ हुए द्रव्य को अवक्तव्यक द्रव्य रूप से कहा गया है और ये दो प्रदेश लोक के असंख्यात प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातवें भाग रूप हैं तथा जितने भी अवक्तव्यक द्रव्य हैं वे सभी लोक के दो-दो प्रदेशों में रहने के कारण सर्वलोकव्यापी माने गये
हैं।
एक ही क्षेत्र में परस्पर विरुद्ध आनुपूर्वी आदि व्यपदेश कैसे संगत ?- अनानुपूर्वी आदि द्रव्यों के सर्वलोकव्यापी होने पर भी एक ही क्षेत्र में आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक ये तीनों पृथक्-पृथक् विषय वाले होने पर भी इनकी संगति इस प्रकार है कि त्रयादि प्रदेशों में अवगाढ आनुपूर्वी द्रव्य से एक प्रदेशावगाढ द्रव्य भिन्न है और इन दोनों से द्विप्रदेशावगाढ भिन्न है। इस प्रकार आधेय रूप अवगाहक द्रव्य के भेद से आधार रूप अवगाह्य क्षेत्र में व्यपदेशभेद होना युक्त ही है। क्योंकि भिन्न-भिन्न सहकारियों के संयोग से तत्तद् धर्म की अभिव्यक्ति होने पर अनन्त धर्मात्मक एक ही वस्तु में युगपत् व्यपदेशभेद होना देखा जाता है। जैसे खङ्ग, कुन्त, कवच आदि से युक्त एक ही व्यक्ति को खङ्गी, कुन्ती, कवची आदि कहते हैं। अनुगमगत स्पर्शनाप्ररूपणा
१५३. (१) णेगम-ववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाइं लोगस्स किं संखेजइभागं फुसंति ? असंखेजति० २ जाव सव्वलोगं फुसंति ?
एगं दव्वं पडुच्च संखेजतिभागं वा फुसंति असंखेजतिभागं वा संखेजे वा भागे असंखेजे वा भागे देसूणं वा लोगं फुसंति, णाणादव्वाइं पडुच्च णियमा सव्वलोगं फुसंति ।
[१५३-१ प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्य क्या (लोक के) संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? या असंख्यातवें भाग का, संख्यातवें भागों का अथवा असंख्यातवें भागों का अथवा सर्वलोक का स्पर्श करते हैं ?
[१५३-१ उ.] आयुष्मन् ! एक द्रव्य की अपेक्षा संख्यातवें भाग का, असंख्यातवें भाग का, संख्यातवें भागों का, असंख्यातवें भागों का अथवा देशोन सर्व लोक का स्पर्श करते हैं किन्तु अनेक द्रव्यों की अपेक्षा तो नियमतः सर्वलोक का स्पर्श करते हैं।
(२) अणाणुपुव्वीदव्वाइं अवत्तव्वयदव्वाणि य जहा खेत्तं, नवरं फुसणा भाणियव्वा ।
[१५३-२] अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की स्पर्शना कथन पूर्वोक्त क्षेत्र द्वार के अनुरूप समझना चाहिए, विशेषता इतनी है कि क्षेत्र के बदले यहां स्पर्शना (स्पर्श करता है) कहना चाहिए।
विवेचन- सूत्र में नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी आदि द्रव्यों की स्पर्शना का निर्देश किया है। एक