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________________ ९० • अनुयोगद्वारसूत्र दो प्रदेश वाले स्कन्ध से लेकर असंख्यात प्रदेश वाले पुद्गलस्कन्धों में से प्रत्येक पुद्गलस्कन्ध कम से कम एक आकाशप्रदेश में और अधिक से अधिक जिस स्कन्ध में जितने प्रदेश-परमाणु हैं उतने ही आकाश के प्रदेशों में अवगाढ होता है, अनन्त आकाशप्रदेशों में नहीं। क्योंकि द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश में है और लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश हैं। अनानुपूर्वी और अवक्तव्य सम्बन्धी विवरण का आशय यह है कि एक आकाशप्रदेश में स्थित परमाणु और स्कन्ध क्षेत्र की अपेक्षा अनानुपूर्वी हैं तथा द्विप्रदेशावगाढ द्विप्रदेशिक आदि स्कन्ध क्षेत्र की अपेक्षा अवक्तव्यक हैं। इस अर्थपदप्ररूपणा का प्रयोजन भंगसमुत्कीर्तनता है। अतः अब भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप और प्रयोजन स्पष्ट करते हैं। नैगम-व्यवहारनयसम्मत क्षेत्रानुपूर्वी-भंगसमुत्कीर्तनता एवं प्रयोजन १४५. से किं तं णेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया ? णेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया अस्थि आणुपुव्वी १ अस्थि अणाणुपुव्वी २ अस्थि अवत्तव्वए ३ एवं दव्वाणुपुव्वीगमेणं खेत्ताणुपुव्वीए वि ते चेव छव्वीसं भंगा भाणियव्वा, जाव से तं णेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया । [१४५ प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या स्वरूप है ? [१४५ उ.] आयुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप इस प्रकार है—१. आनुपूर्वी है, २. अनानुपूर्वी है, ३. अवक्तव्यक है इत्यादि द्रव्यानुपूर्वी के पाठ की तरह क्षेत्रानुपूर्वी के भी वही छब्बीस भंग हैं, यावत् इस प्रकार नैगमव्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप जानना चाहिए। १४६. एयाए णं णेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए किं पओयणं ? एयाए णं णेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए णेगम-ववहाराणं भंगोवदंसणया कजति । [१४६ प्र.] भगवन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है ? [१४६ उ.] आयुष्मन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता द्वारा नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगोपदर्शनता की जाती है। विवेचन— सूत्र में नैगम-व्यवहारनयसम्मत क्षेत्रानुपूर्वी के छब्बीस भंग द्रव्यानुपूर्वी के भंगों के नामानुरूप होने का उल्लेख किया है। द्रव्यानुपूर्वी सम्बन्धी छब्बीस भंगों के नाम सूत्र १०१, १०३ में बताये गये हैं। नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगोपदर्शनता १४७. से किं तं णेगम-ववहाराणं भंगोवदंसणया ? णेगम-ववहाराणं भंगोवदंसणया तिपएसोगाढे आणुपुव्वी एगपएसोगाढे अणाणुपुव्वी दुपएसोगाढे अवत्तव्वए, तिपएसोगाढाओ आणुपुव्वीओ एगपएसोगाढाओ अणाणुपुव्वीओ दुपएसोगाढाइं अवत्तव्वयाइं, अहवा तिपएसोगाढे य एगपएसोगाढे य आणुपुव्वी य अणाणुपुव्वी य, एवं तहा चेव दव्वाणुपुव्वीगमेणं छव्वीसं भंगा भाणियव्वा जाव से तं णेगम-ववहाराणं भंगोवदंसणया ।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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