________________
आनुपूर्वीनिरूपण
८९
आकाश के एक प्रदेश में अवगाढ द्रव्य (पुद्गलपरमाणु) से लेकर यावत् असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक क्षेत्रापेक्षया अनानुपूर्वी कहलाता है।
दो आकाशप्रदेशों में अवगाढ द्रव्य (दो, तीन या असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध भी) क्षेत्रापेक्षया अवक्तव्यक है।
तीन आकाशप्रदेशावगाही अनेक-बहुत द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वियां हैं यावत् दसप्रदेशावगाही द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वियां हैं यावत् संख्यातप्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वियां हैं, असंख्यात प्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वियां हैं।
एक प्रदेशावगाही पुद्गलपरमाणु आदि (अनेक) द्रव्य अनानुपूर्वियां हैं। दो आकाशप्रदेशावगाही व्यणुकादि द्रव्यस्कन्ध अवक्तव्यक हैं। यह नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का स्वरूप जानना चाहिए। १४४. एयाए णं णेगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए किं पओयणं ? एयाए णं णेगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए णेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया कीरति । [१४४ प्र.] भगवन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का क्या प्रयोजन है ?
[१४४ उ.] आयुष्मन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता द्वारा नैगम-व्यवहारनयसम्मत भंगसमुत्कीर्तनता की जाती है।
विवेचन— इन दो सूत्रों में क्रमशः नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी के प्रथम भेद अर्थपदप्ररूपणता का स्वरूप एवं प्रयोजन बतलाया है। सूत्रार्थ स्पष्ट है। सम्बन्धित विशेष वक्तव्य इस प्रकार है
क्षेत्रानुपूर्वी में क्षेत्र की प्रधानता है। त्र्यणुकादि रूप पुद्गलस्कन्धों के साथ उसका सीधा सम्बन्ध नहीं है। अतएव त्रिप्रदेशावगाही द्रव्यस्कन्ध से लेकर अनन्ताणुक पर्यन्त स्कन्ध यदि वे एक आकाशप्रदेश में स्थित हैं तो उनमें क्षेत्रानुपूर्वीरूपता नहीं है। फिर भी यहां जो त्रिप्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध को आनुपूर्वी कहा गया है, उसका तात्पर्य आकाश के तीन प्रदेशों में अवगाह रूप पर्याय से विशिष्ट द्रव्यस्कन्ध है। क्योंकि तीन पुद्गलपरमाणु वाले द्रव्यस्कन्ध आकाश रूप क्षेत्र के तीन प्रदेशों को भी रोककर रहते हैं। इसीलिए आकाश के तीन प्रदेशों में अवगाही द्रव्यस्कन्ध भी आनुपूर्वी कहे जाते हैं।
वैसे तो क्षेत्रानुपूर्वी का अधिकार होने से यहां क्षेत्र की मुख्यता है। परन्तु तदवगाढद्रव्य को क्षेत्रानुपूर्वीरूपता क्षेत्रावगाह रूप पर्याय की प्रधानता विवक्षित होने की अपेक्षा से है।
__ प्रसंग होने पर भी क्षेत्र की मुख्यता का परित्याग करके उपचार को प्रधानता देकर तदवगाही द्रव्य में क्षेत्रानुपूर्वी का विचार इसलिए किया गया है कि सत्पदप्ररूपणता आदि रूप वक्ष्यमाण विचार का विषय द्रव्य है और इसी के माध्यम से जिज्ञासुओं को समझाया जा सकता है तथा क्षेत्र नित्य, अवस्थित, अचल होने से प्रायः उसमें आनुपूर्वी आदि की कल्पना किया जाना सुगम नहीं है, इसलिए क्षेत्रावगाही द्रव्य के माध्यम से क्षेत्रानुपूर्वी का विचार किया है।
सूत्रोक्त 'असंखेजपएसोगाढे आणुपुव्वी' 'असंख्येयप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी' इस पद का अर्थ आकाश के असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ असंख्यात अणुओं वाला अथवा अनन्त अणुओं वाला द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है, ऐसा जानना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि एक पुद्गलपरमाणु आकाश के एक ही प्रदेश में अवगाढ होता है। परन्तु