SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुयोगद्वारसूत्र १४०. तत्थ णं जा सा ओवणिहिया सा ठप्पा । [१४०] इन दो भेदों में से औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी (अल्प विषय वाली होने से पश्चात् वर्णन किये जाने के कारण) स्थाप्य है। १४१. तत्थ णं जा सा अणोवणिहिया सा दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—णेगम-ववहाराणं १ संगहस्स य २ । । [१४१] अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी दो प्रकार की कही गई है। यथा—१. नैगम-व्यवहारनयसम्मत और २. संग्रहनयसम्मत। विवेचन— यह तीन सूत्र क्षेत्रानुपूर्वी के वर्णन की भूमिका रूप हैं। सूत्रोक्त क्रमानुसार इनका वर्णन आगे किया जा रहा है। नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी १४२. से किं तं णेगम-ववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी ? ‘णेगम-ववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी पंचविहा पण्णत्ता । तं जहा—अट्ठपयपरूवणया १ भंगसमुक्कित्तणया २ भंगोवदंसणया ३ समोयारे ४ अणुगमे ५ । [१४२ प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [१४२ उ.] आयुष्मन् ! इस उभयनयसम्मत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी की प्ररूपणा के पांच प्रकार हैं। यथा—१. अर्थपदप्ररूपणता, २. भंगसमुत्कीर्तनता, ३. भंगोपदर्शनता, ४. समवतार, ५. अनुगम। विवेचन— सूत्रोक्त अर्थपदप्ररूपणता आदि की लक्षण-व्याख्या द्रव्यानुपूर्वी के प्रसंग में किये गये वर्णन के समान जाननी चाहिए। नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणा और प्रयोजन १४३. से किं तं णेगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया ? णेगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया तिपएसोगाढे आणुपुव्वी जाव दसपएसोगाढे आणुपुव्वी जाव संखिजपएसोगाढे आणुपुव्वी असंखेजपएसोगाढे आणुपुव्वी, एगपएसोगाढे अणाणुपुव्वी, दुपएसोगाढे अवत्तव्वए, तिपएसोगाढा आणुपुव्वीओ जाव दसपएसोगाढा आणुपुव्वीओ जाव संखेजपएसोगाढा आणुपुव्वीओ असंखिजपएसोगाढा आणुपुव्वीओ, एगपएसोगाढा अणाणुपुव्वीओ, दुपएसोगाढा अवत्तव्वगाइं । से तं णेगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणया । [१४३ प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत अर्थपदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ? [१४३ उ.] आयुष्मन् ! उक्त नयद्वय-सम्मत अर्थपदप्ररूपणा का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिए— तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है यावत् दस प्रदेशावगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है यावत् संख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है, असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी है।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy