SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनुपूर्वीनिरूपण का विपरीत क्रम से किया जाने वाला न्यास पश्चानुपूर्वी है। अनानुपूर्वी १३८. से किं तं अणाणुपुव्वी ? अणाणुपुव्वी एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए अणंतगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुव्वी । से तं ओवणिहिया दव्वाणुपुव्वी । से तं जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वाणुपुव्वी । से तं नोआगमतो दव्वाणुपुव्वी । से तं दव्वाणुपुव्वी । [१३८ प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [१३८ उ.] आयुष्मन् ! एक से प्रारंभ करके एक-एक की वृद्धि करने के द्वारा निर्मित अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध पर्यन्त की श्रेणी की संख्या को परस्पर गुणित करने से निष्पन्न अन्योन्याभ्यस्त राशि में से आदि और अंत रूप दो भंगों को कम करने पर अनानुपूर्वी बनती है। यह औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का वर्णन जानना चाहिए। इस प्रकार से ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी का और साथ ही नोआगम द्रव्यानुपूर्वी तथा द्रव्यानुपूर्वी का भी वर्णन पूर्ण हुआ। विवेचन— यहां पूर्वानुपूर्वी आदि रूप में पुद्गलास्तिकाय को उदाहृत करने का कारण यह है कि पूर्वानुपूर्वी आदि के विचार में परमाणु आदि द्रव्यों का परिपाटी रूप क्रम पुद्गल द्रव्यों की बहुलता के कारण संभव है। एकएक द्रव्य रूप माने जाने से धर्म, अधर्म, आकाश इन तीनों अस्तिकाय द्रव्यों में पुद्गलास्तिकाय की तरह द्रव्यबाहुल्य नहीं है तथा जीवास्तिकाय में अनन्त जीवद्रव्यों की सत्ता होने के कारण यद्यपि द्रव्यबाहुल्य है, फिर भी परमाणु, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी स्कन्ध यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में जैसा पूर्वानुपूर्वी आदि रूप पूर्व-पश्चाद्भाव है, वैसा जीवद्रव्य में नहीं है। क्योंकि प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेश वाला होने से समस्त जीवों में तुल्यप्रदेशता है। परमाणु, द्विप्रदेशिक स्कन्ध आदि द्रव्यों में विषम प्रदेशता है, जिससे वहां पूर्व-पश्चाद्भाव है। अद्धासमय एक समय प्रमाण रूप है। इसीलिए उसमें भी पूर्वानुपूर्वी आदि संभव नहीं है। ___इन सब कारणों से धर्मास्तिकाय आदि अन्य द्रव्यों को छोड़कर पुद्गलास्तिकाय को ही पूर्वानुपूर्वी आदि रूप से उदाहृत किया गया है। इस प्रकार पूर्व में बताये गये द्रव्यानुपूर्वी के दो प्रकारों का पूर्ण रूप से कथन किया जा चुका है। अतः अब क्रमप्राप्त क्षेत्रानुपूर्वी का वर्णन प्रारंभ करते हैं। क्षेत्रानुपूर्वी के प्रकार १३९. से किं तं खेत्ताणुपुव्वी ? खेत्ताणुपुव्वी दुविहा पण्णत्ता । तं जहा—ओवणिहिया य अणोवणिहिया य । [१३९ प्र.] भगवन् ! क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [१३९ उ.] आयुष्मन् ! क्षेत्रानुपूर्वी दो प्रकार की है। यथा—१. औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी और २. अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy