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आनुपूर्वीनिरूपण
अनानुपूर्वी
१३४. से किं तं अणाणुपुव्वी ?
अणाणुपुव्वी एयाए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुव्वी ।
[१३४ प्र.] भगवन् ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
[१३४ उ.] आयुष्मन् ! एक से प्रारंभ कर एक-एक की वृद्धि करने पर छह पर्यन्त स्थापित श्रेणी के अंकों में परस्पर गुणाकार करने से जो राशि आये, उसमें से आदि और अंत के दो रूपों (भंगों) को कम करने पर अनानुपूर्वी बनती है।
विवेचन— इन तीन सूत्रों (१३२, १३३, १३४) में औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के एक अपेक्षा से पूर्वानुपूर्वी आदि तीन भेदों का स्वरूप बतलाया है।
धर्मास्तिकाय आदि के लक्षण प्रायः सुगम हैं कि गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों की गति में सहायक द्रव्य को धर्मास्तिकाय और उनकी स्थिति में सहायक द्रव्य को अधर्मास्तिकाय, सभी द्रव्यों को अवस्थान-अवकाश देने में सहयोगी द्रव्य को आकाशास्तिकाय, चेतनापरिणाम युक्त द्रव्य को जीवास्तिकाय, पूरण-गलन स्वभाव वाले द्रव्य को पुद्गलास्तिकाय और पूर्वापर कोटि-विप्रमुक्त वर्तमान एक समय को अद्धासमय कहते हैं।
षड्द्रव्यों की विशेषता- धर्मास्तिकाय आदि इन षड्द्रव्यों में से अद्धासमय एक समयात्मक होने से अस्ति रूप है किन्तु 'काय' नहीं है। शेष पांच द्रव्य प्रदेशों के संघात रूप होने से अस्तिकाय कहलाते हैं। जीवास्तिकाय सचेतन और शेष पांच अचेतन हैं। पुद्गलास्तिकाय रूपी-मूर्त और शेष पांच द्रव्य अमूर्तिक-अरूपी हैं।
धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन अस्तिकाय द्रव्य द्रव्यापेक्षा एक-एक द्रव्य हैं। जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय अनन्तद्रव्य हैं तथा काल अप्रदेशीद्रव्य है। जीव, धर्म, अधर्म ये तीन असंख्यात प्रदेशी हैं। आकाशास्तिकाय सामान्य से अनन्तप्रदेशी द्रव्य है। लोकाकाशरूप आकाश असंख्यातप्रदेशी और अलोकाकाश अनन्तप्रदेशी है। पुद्गलास्तिकाय के संख्यात, असंख्यात अनन्त प्रदेश होते हैं। अणुरूप पुद्गल तो एक प्रदेशी है और स्कन्धात्मक पुद्गल दो प्रदेशों के संघात से लेकर अनन्तानन्त प्रदेशों तक का समुदाय रूप हो सकता है।
धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन अस्तिकाय नित्य, अवस्थित एवं निष्क्रिय हैं और जीव, पुद्गल सक्रिय अस्तिकाय द्रव्य हैं।
षड्द्रव्यों का क्रमविन्यास— धर्म पद मांगलिक होने से सर्वप्रथम धर्मास्तिकाय का और तत्पश्चात् उसके प्रतिपक्षी अधर्मास्तिकाय का उपन्यास किया गया है। इनका आधार आकाश है, अतः इन दोनों के अनन्तर आकाशास्तिकाय का उल्लेख किया है, तत्पश्चात् आकाश की तरह अमूर्तिक होने से जीवास्तिकाय का न्यास किया है। जीव के भोगोपभोग में आने वाला होने से जीव के अनन्तर पुद्गलास्तिकाय का विन्यास किया है तथा जीव और अजीव का पर्याय रूप होने से सबसे अंत में अद्धासमय का उपन्यास किया है। .
क्रमविन्यास की उक्त दृष्टि पूर्वानुपूर्वित्व में हेतु है। इसी क्रम को प्रतिलोम क्रम से सबसे अंतिम