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आनुपूर्वीनिरूपण
६९ रूप अनानुपूर्वीद्रव्य आकाश के एक ही प्रदेश में स्थित रहता है परन्तु व्यणुक एक प्रदेश में भै रह सकता है और दो प्रदेशों में भी। इसी प्रकार उत्तरोत्तर संख्या बढ़ते-बढ़ते त्र्यणुक, चतुरणुक यावत् संख्याताणुक स्कन्ध एक प्रदेश, दो प्रदेश, तीन प्रदेश यावत् संख्यात प्रदेशरूप क्षेत्र में ठहर सकते हैं। संख्याताणुक द्रव्य की स्थिति के लिए असंख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार असंख्याताणुक स्कन्ध एक प्रदेश से लेकर अधिक से अधिक अपने बराबर के असंख्यात संख्या वाले प्रदेशों के क्षेत्र में ठहर सकता है। किन्तु अनन्ताणुक और अनन्तानंताणुक स्कन्ध के विषय में यह जानना चाहिए कि वह एक प्रदेश, दो प्रदेश इत्यादि क्रम से बढ़ते-बढ़ते संख्यात प्रदेश और असंख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र में ठहर सकते हैं। उनकी स्थिति के लिए अनन्त प्रदेशात्मक क्षेत्र की जरूरत नहीं है। पुद्गलद्रव्य का सबसे बड़ा स्कन्ध, जिसे अचित्त महास्कन्ध कहते हैं और जो अनन्तानन्त अणुओं का बना होता है, वह भी असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में ही ठहर जाता है। लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात ही हैं और उससे बाहर पुद्गल की अवगाहना संभव नहीं है।
उपर्युक्त समग्र कथन आनुपूर्वी आदि एक-एक द्रव्य की अपेक्षा से समझना चाहिए। किन्तु अनेक की अपेक्षा इन समस्त द्रव्यों का अवगाहन समस्त लोकाकाश में है। जिसका स्पष्टीकरण 'नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोए होजा' पद द्वारा किया गया है।
अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणुओं से निष्पन्न अचित्त महास्कन्धरूप आनुपूर्वीद्रव्य के एक समय में समस्त लोक में अवगढ रहने को केवलीसमुद्घात के चतुर्थ समयवर्ती आत्मप्रदेशों के सर्वलोक में व्याप्त होने की तरह जानना चाहिए। स्पर्शना प्ररूपणा
१०९. (१) णेगम-ववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाइं लोगस्स किं संखेजइभागं फुसंति ? असंखेजइभागं फुसंति ? संखेजे भागे फुसंति ? असंखेजे भागे फुसंति ? सव्वलोयं फुसंति ?
एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेजइभागं वा फुसंति, असंखेजइभागं वा फुसंति संखेजे वा भागे फुसंति असंखेजे वा भागे फुसंति सव्वलोगं वा फुसंति, णाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोगं फुसंति ।
[१०९-१ प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वीद्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? अथवा असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? संख्यात भागों का स्पर्श करते हैं ? अथवा असंख्यात भागों का स्पर्श करते हैं ? अथवा समस्त लोक का स्पर्श करते हैं ?
[१०९-१ उ.] आयुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनय की अपेक्षा एक आनुपूर्वीद्रव्य लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करता है, असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है, संख्यात भागों का स्पर्श करता है, असंख्यात भागों का स्पर्श करता है अथवा सर्वलोक का स्पर्श करता है, किन्तु अनेक (आनुपूर्वी) द्रव्य तो नियमतः सर्वलोक का स्पर्श करते
हैं।
(२) णेगम-ववहाराणं अणाणुपुव्वीदव्वाणं पुच्छा, एगं दव्वं पडुच्च नो संखेजइभागं फुसंति असंखेजइभागं फुसंति नो संखेजे भागे फुसंति नो असंखेजेभागे फुसंति नो सव्वलोगं