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आनुपूर्वीनिरूपण
है। वे असत् रूप नहीं हैं और न उनका कभी अभाव हो सकता है। यही सत्पदप्ररूपणा का हार्द है। द्रव्यप्रमाण
१०७. (१) नेगम-ववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाइं किं संखेजाइं असंखेजाइं अणंताई ? नो संखेजाइं नो असंखेज्जाइं अणंताई ।
[१०७-१ प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनय की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं ?
[१०७-१ उ.] आयुष्मन् ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं किन्तु अनन्त हैं। (२) एवं दोण्णि वि । [१०७-२] इसी प्रकार शेष दोनों (अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य) भी अनन्त हैं। इस प्रकार से अनुगम के द्रव्यप्रमाण नामक दूसरे भेद की वक्तव्यता जानना चाहिए।
विवेचन— सूत्र में अनुगम के दूसरे भेद का हार्द स्पष्ट किया है कि आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य अनन्त हैं और इनके अनन्त होने का कारण यह है कि ये प्रत्येक आकाश के एक-एक प्रदेश में अनन्त-अनन्त भी पाये जाते हैं।
असंख्यातप्रदेशी आकाश रूप क्षेत्र में अनन्त आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का अवस्थान कैसे संभव है ? इसका उत्तर यह है कि क्योंकि पुद्गल का परिणमन अचिन्त्य है और आकाश में अवगाहन शक्ति है। जैसे एक प्रदीप की प्रभा से व्याप्त एक गृहान्तवर्ती आकाश प्रदेशों में दूसरे और भी अनेक प्रदीपों की प्रभा का अवस्थान होता है, इसी प्रकार आनुपूर्वी आदि अनन्त द्रव्यों की असंख्यातप्रदेशी आकाश में उसकी अवगाहनशक्ति के योग से एवं पुद्गल परिणमन की विचित्रता से अवस्थिति होने में और आनुपूर्वी आदि द्रव्यों को अनन्त मानने में किसी प्रकार की बाधा नहीं है।
प्रस्तुत में प्रयुक्त ‘एवं दोण्णि वि' के स्थान पर किसी-किसी प्रति में निम्नलिखित पाठ है'एवं अणाणुपुव्वीदव्वाइं अवत्तव्वगदव्वाइं च अणंताई भाणिअव्वाइं ।'
जिसमें संक्षेप और विस्तार की अपेक्षा शब्दों में अन्तर है, लेकिन दोनों का आशय समान है। क्षेत्रप्ररूपणा
१०८. (१) णेगम-ववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाइं लोगस्स कतिभागे होजा ? किं संखेजइभागे होज्जा ? असंखेजइभागे होज्जा ? संखेजेसु भागेसु होज्जा ? असंखेजेसु भागेसु होज्जा ? सव्वलोए होज्जा ?
एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागे वा होजा असंखेज्जइभागे वा होज्जा संखेज्जेसु भागेसु व होज्जा असंखेजेसु भागेसु वा होज्जा सव्वलोए वा होजा, नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोए होजा ।
[१०८-१ प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी द्रव्य (क्षेत्र के) कितने भाग में अवगाढ हैं ?