SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ अनुयोगद्वारसूत्र होने से सर्वप्रथम इसका विन्यास किया है। द्रव्यप्रमाण- आनुपूर्वी आदि पदों के द्वारा जिन द्रव्यों को कहा जाता है उनकी संख्या का विचार करने को कहते हैं। क्षेत्र— आनुपूर्वी आदि पदों द्वारा कथित द्रव्यों के आधारभूत क्षेत्र का विचार करना। स्पर्शन- आनुपूर्वी आदि द्रव्यों द्वारा स्पर्शित क्षेत्र की पर्यालोचना करना। क्षेत्र में केवल आधारभूत आकाश का ही ग्रहण है, जबकि स्पर्शना में आधारभूत क्षेत्र के चारों तरफ के और ऊपर-नीचे के वे आकाशप्रदेश भी ग्रहण किये जाते हैं जो आधेय द्वारा स्पर्शित होते हैं, यही क्षेत्र और स्पर्शन में अन्तर है। काल-आनुपूर्वी आदि द्रव्यों की स्थिति की मर्यादा का विचार करना। अन्तर- विरहकाल। अर्थात् विवक्षित पर्याय का परित्याग हो जाने के बद पुनः उसी पर्याय की प्राप्ति में होने वाले विरहकाल को अन्तर कहते हैं। भाग- आनुपूर्वी आदि द्रव्य दूसरे द्रव्यों के कितनेवें भाग में रहते हैं, ऐसा विचार करना। भाव-विवक्षित आनुपूर्वी आदि द्रव्य किस भाव में हैं, ऐसा विचार करना। अल्पबहुत्व— अर्थात् न्यूनाधिकता। द्रव्याकि, प्रदेशार्थिक और तदुभय के आश्रय से इन आनुपूर्वी आदि द्रव्यों में अल्पाधिकता का विचार किया जाना अल्पबहुत्व कहलाता है। इनका विस्तृत विचार क्रम से आगे के सूत्रों में किया जा रहा है। सत्पद प्ररूपणा १०६. (१) नेगम-ववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाइं किं अत्थि णत्थि ? णियमा अस्थि । [१०६-१ प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनय की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य हैं अथवा नहीं हैं ? [१०६-१ उ.] आयुष्मन् ! नियम से अवश्य हैं। (२) नेगम-ववहाराणं अणाणुपुव्वीदव्वाइं किं अत्थि णत्थि ? णियमा अस्थि । [१०६-२ प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य हैं अथवा नहीं हैं ? [१०६-२ उ.] आयुष्मन् ! अवश्य हैं। (३) नेगम-ववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाइं किं अत्थि णत्थि ? नियमा अस्थि । [१०६-३ प्र.] भगवन् ! क्या नैगम-व्यवहारनयसम्मत अवक्तव्यक द्रव्य हैं या नहीं हैं ? [१०६-३ उ.] आयुष्मन् ! अवश्य हैं। (इस प्रकार से सत्पदप्ररूपणा रूप प्रथम भेद की वक्तव्यता जानना चाहिए।) .विवेचन— सूत्र में नैगम-व्यवहारनयसम्मत आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का निश्चितरूपेण अस्तित्व प्रकट किया
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy