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आनुपूर्वीनिरूपण
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आनुपूर्वी रूप से कथन किया जाना अशक्य है और द्विप्रदेशी स्कन्ध में परस्पर की अपेक्षा पूर्व-पश्चाद्भाव का सद्भाव होने से पुद्गल परमाणु की तरह अनानुपूर्वी रूप से भी उसे नहीं कह सकते हैं। इस प्रकार आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी रूप से कहा जाना शक्य नहीं होने से यह द्विप्रदेशिक स्कन्ध अवक्तव्य है।
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आदि, मध्य और अन्त का वाच्यर्थ आदि अर्थात् जिससे पर ( अगला ) है किन्तु पूर्व नहीं। जिससे पूर्व भी है और पर भी है, यह मध्य और जिससे पूर्व तो है किन्तु पर नहीं, वह अन्त कहलाता है ।
बहुवचनान्त पदों का निर्देश क्यों ? - त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी है इत्यादि एक वचनान्त से संज्ञा -संज्ञी सम्बन्ध का कथन सिद्ध हो जाने पर भी आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का हरएक भेद अनन्त व्यक्ति रूप है तथा नैगम एवं व्यवहारनय का ऐसा सिद्धान्त है, इस बात को प्रदर्शित करने के लिए 'त्रिप्रदेशा: आनुपूर्व्य' ऐसा बहुवचनान्त प्रयोग किया है। अर्थात् त्रिप्रदेशिक एकद्रव्यरूप एक ही आनुपूर्वी नहीं किन्तु त्रिप्रदेशिकद्रव्य अनन्त हैं, अतः उतनी ही अनन्त आनुपूर्वियों की सत्ता है।
क्रमविन्यास में हेतु — सूत्रकार ने एक परमाणु से निष्पन्न अनानुपूर्वी द्रव्य, परमाणुद्वय के सम्बन्ध से निष्पन्न अवक्तव्य द्रव्य और फिर परमाणुत्रय के संश्लेष से निष्पन्न आनुपूर्वी द्रव्य, इस प्रकार द्रव्य की वृद्धिरूप पूर्वानुपूर्वी क्रम का तथा इसी प्रकार परमाणुत्रयनिष्पन्न आनुपूर्वी, परमाणुद्वयनिष्पन्न अवक्तव्य और एक परमाणुनिष्पन्न अनानुपूर्वी रूप पश्चानुपूर्वी का उल्लंघन करके पहले आनुपूर्वी द्रव्य का, तदनन्तर अनानुपूर्वी द्रव्य का सबसे अंत में अवक्तव्य द्रव्य का निर्देश यह स्पष्ट करने के लिए किया है कि आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्य अल्प हैं और अनानुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा अवक्तव्य द्रव्य और भी अल्प हैं । इस प्रकार से द्रव्य की अल्पता - न्यूनता का निर्देश करने के लिए सूत्र में यह क्रमविन्यास किया है।
१००. एयाए णं णेगम-ववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए किं पओयणं ? या णं णेगम - ववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए भंगसमुक्कित्तणया कीरइ ।
[१०० प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसमंत इस अर्थपदप्ररूपणा रूप आनुपूर्वी से क्या प्रयोजन सिद्ध होता
है ?
[१०० उ.] आयुष्मन् ! इस नैगम-व्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणा द्वारा भंगसमुत्कीर्तना की जाती है अर्थात् भंगों का कथन किया जाता है। .
विवेचन — सूत्र में यह स्पष्ट किया है कि अर्थपदप्ररूपणा का प्रयोजन यह है कि उसके बाद भंगसमुत्कीर्तन रूप कार्य होता है। तात्पर्य यह है कि अर्थपदप्ररूपणा में आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी, अवक्तव्य संज्ञायें निश्चित होने के बाद ही भंगों का समुत्कीर्तन (कथन) हो सकता है, अन्यथा नहीं ।
नैगम-व्यवहारनयसंमत भंगसमुत्कीर्तन और उसका प्रयोजन
१०१. से किं तं णेगम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया ?
गम-ववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया अत्थि आणुपुव्वी १ अत्थि अणाणुपुव्वी २ अत्थि अवत्तव्वर ३ अस्थि आणुपुव्वीओ ४ अत्थि अणाणुपुव्वीओ ५ अत्थि अवत्तव्वयाई ६ | अहवा अथ आणुपुवीय अणाणुपुव्वी य १ अहवा अत्थि आणुपुव्वी य अणाणुपुव्वीओ य २ अहवा