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________________ ५७ आनुपूर्वी है स्कन्ध में अनौपनिधिकी आनुपूर्वी कैसे ? – जिज्ञासु का प्रश्न है कि स्कन्ध अनन्तप्रदेशी तक के होते हैं । उनमें कोई त्रिप्रदेशी, कोई चतु: प्रदेशी इस प्रकार उत्तरोत्तर समस्त स्कन्ध क्रमपूर्वक होने से उनमें पूर्वानुपूर्वी के क्रम से स्थापना की व्यवस्था होने के कारण औपनिधिकित्व संभव है, अनौपनिधिकरूपता कैसे ? इसका उत्तर यह कि स्कन्धगत त्रिप्रदेशिकता आदि किसी के द्वारा क्रम से रखकर नहीं बनाई गई है। वह तो स्वभाव से ही है। सभी स्कन्ध स्वाभाविक परिणाम से परिणत होते रहते हैं । अतएव स्कन्ध में अनौपनिधिकीपन है। जहां तीर्थंकर आदि के द्वारा पूर्वानुपूर्वी के क्रम से वस्तुओं की व्यवस्था होती है, वहां पर औपनिधिकी आनुपूर्वी होती है। जैसे धर्म, अधर्म आदि छह द्रव्यों में अथवा सामायिक आदि छह अध्ययनों में । अनौपनिधिकी में आनुपूर्वित्व कैसे ? – यद्यपि अनौपनिधिकी में पूर्वानुपूर्वी के क्रम से व्यवस्थापन नहीं होता है, फिर भी तीन आदि परमाणुओं में आदि, मध्य और अन्त रूप नियत क्रम से व्यवस्थापन की योग्यता ही आनुपूर्वत्व का कारण है । पाठभेद — अत्रोक्त सूत्र ९४-९५ के स्थान पर किसी-किसी प्रति में निम्न प्रकार से विस्तृत पाठ है— नामठवणाओ गयाओ से किं तं दव्वाणुपुव्वी ? २ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा — आगमओ अ नोआगमओ अ । से किं तं आगमओ दव्वाणुपुव्वी ? २ जस्स णं आणुपुव्वित्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाव नो अणुप्पेहाए, कम्हा ? अणुवओगो दव्वमितिकट्टु, णेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमओ एगा दव्वाणुपुव्वी जाव कम्हा ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ से तं आगमओ दव्वाणुपुव्वी । से किं तं नोआगमओ दव्वाणुपुव्वी ? २ तिविहा पण्णत्ता, तं जहा—जाणगसरीरदव्वाणुपुव्वी भविअसरीरदव्वाणुपुवी, जाणयसरीर-भवियसरीरवइरित्तादव्वाणुपुव्वी । किं तं जाणयसरीरदव्वाणुपुव्वी ? २ पयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुयचावियचत्तदेहं सेसं जहा दव्वावस्सए तहा भाणिअव्वं जाव से तं जाणयसरीरदव्वाणुपुव्वी । से किं तं भविअसरीरदव्वाणुपुव्वी ? २ जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खंते सेसं जहा दव्वावस्सए जाव से तं भविअसरीरदव्वाणुपुव्वी । सूत्रपाठ का आशय स्पष्ट है । नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के भेद ९८. से किं तं णेगम-ववहाराणं अणोवणिहिया दव्वाणुपुव्वी ? णेग़म-ववहाराणं अणोवणिहिया दव्वाणुपुव्वी पंचविहा पण्णत्ता । तं जहा— अट्ठपयपरूवणया १ भंगसमुक्कित्तणया २ भंगोवदंसणया ३ समोयारे ४ अणुगमे ५ । [९८ प्र.] भगवन् ! नैगमनय और व्यवहारनय द्वारा मान्य अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? [९८ उ.] आयुष्मन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत द्रव्यानुपूर्वी के पांच प्रकार हैं। वे इस प्रकार - १. अर्थपदप्ररूपणा, २. भंगसमुत्कीर्तनता, ३. भंगोपदर्शनता, ४. समवतार और ५. अनुगम । विवेचन— नैगम-व्यवहारनयसम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का जिन पांच प्रकारों द्वारा विचार किया जाना है, उनके लक्षण इस प्रकार हैं अर्थपदप्ररूपणा त्र्यणुक स्कन्ध आदि रूप अर्थ को विषय करने वाले पद की प्ररूपणा करना । अर्थात् सर्वप्रथम संज्ञा-संज्ञी के सम्बन्ध मात्र का कथन करना अर्थपदप्ररूपणा है ।
SR No.003468
Book TitleAgam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorAryarakshit
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1987
Total Pages553
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size11 MB
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