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अनुयोगद्वारसूत्र
उ. आयुष्मन् ! ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी दो प्रकार की कही है। यथा – १. औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी और २. अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी ।
९६. तत्थ णं जा सा उवणिहिया सा ठप्पा ।
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[९६] इनमें से औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी स्थाप्य है । तथा—
९७. तत्थ णं जा सा अणोवणिहिया सा दुविहा पन्नत्ता । तं जहा—णेगम - ववहाराणं १ संगहस् य २ ।
[९७] अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के दो प्रकार हैं—१. नैगम - व्यवहारनयसंमत, २ . संग्रहनयसंमत ।
विवेचन—– सूत्र संख्या ९४-९५ में नाम, स्थापना आनुपूर्वी तथा द्रव्यानुपूर्वी के कतिपय भेदों का स्वरूप सदृश नाम वाले आवश्यक के भेदों के जैसा समझने का अतिदेश किया है। इसके अतिरिक्त विशेष कथनीय इस प्रकार है
औपनिधिकी आनुपूर्वी— इसका मूल शब्द उपनिधि है। जिसमें 'उप' का अर्थ है समीप तथा 'निधि' का अर्थ है रखना। अतएव किसी एक विवक्षित पदार्थ को पहले व्यवस्थापित करके फिर उसके पास ही पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से अन्यान्य पदार्थों को रखे जाने को उपनिधि कहते हैं और यह उपनिधि जिस आनुपूर्वी का प्रयोजन है, उसे औपनिधिकी आनुपूर्वी कहते हैं ।
अनौपनिधिकी आनुपूर्वी— अनुपनिधि—— पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रमानुसार पदार्थ की स्थापना, व्यवस्था नहीं करना अनौपनिधिकी आनुपूर्वी कहलाती है ।
इन दोनों में अल्पविषय वाली होने से औपनिधिकी आनुपूर्वी को गौण मानकर पहले बहुविषय वाली अनौपनिधिकी आनुपूर्वी का वर्णन प्रारंभ किया है। औपनिधिकी आनुपूर्वी का कथन आगे किया जाएगा।
अनौपनिधिकी आनुपूर्वी की द्विविधता — नैगम, संग्रह, व्यवहार आदि सात नयों का द्रव्यार्थिक और पर्ययार्थिक इन दो नयों में अन्तर्भाव हो जाता है । द्रव्यार्थिकनय द्रव्य ही परमार्थ है, इस प्रकार पर्यायों को गौण करके द्रव्य को स्वीकार करता है और पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से पर्यायें ही मुख्य हैं— सत् हैं। नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय द्रव्य को ही विषय करने वाले होने से द्रव्यार्थिकनय हैं तथा ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये चार नय पर्यायों को विषय करने वाले होने से पर्यायार्थिकनय हैं।
सामान्य से द्रव्यार्थिकनय दो प्रकार का है—१. विशुद्ध, २. अविशुद्ध । नैगम और व्यवहार नय अनन्त परमाणु, अनन्त द्व्यणुक आदि अनेक व्यक्ति स्वरूप और कृष्णादि अनेक गुणों के आधारभूत त्रिकालवर्ती द्रव्य को विषय करने वाले होने से अविशुद्ध हैं और संग्रहनय स्वजाति की अपेक्षा परमाणु आदि एक सामान्य रूप द्रव्य को ही विषय करता है । यह द्रव्यगत पूर्वापर विभाग को नहीं मानता है। इसकी दृष्टि में अनेक भिन्न-भिन्न परमाणु आदि भी परमाणुत्व आदि रूप से समानता वाले होने के कारण एक हैं, अतः उनमें भी भेद नहीं है। इन सब कारणों से संग्रह विशुद्ध है । अतएव द्रव्यार्थिकनय के मत से द्रव्यानुपूर्वी का शुद्ध-अशुद्ध स्वरूप बताने के लिए अनौपनिधिकी आनुपूर्वी के दो भेद हो जाते हैं ।