SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२] [नन्दीसूत्र (३) क्षेत्रद्वार मानुषोत्तर पर्वत के अन्तर्गत अढ़ाई द्वीप, लवण और कालोदधि समुद्र हैं। कोई भी जीव सिद्ध होता है तो इन्हीं द्वीप समुद्रों से होता है। अढ़ाई द्वीप से बाहर केवलज्ञान नहीं हो सकता और केवलज्ञान के बिना मोक्षप्राप्ति सम्भव नहीं है। इसमें भी १५ उपद्वार हैं जिन्हें पहले की भांति समझना चाहिये। (४)स्पर्शनाद्वार जो भी सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं या आगे होंगे वे सभी आत्मप्रदेशों से परस्पर मिले हुए हैं। यथा-"एक माँहि अनेक राजे अनेक माँहि एककम्।" जैसे हजारों, लाखों प्रदीपों का प्रकाश एकीभूत होने से भी किसी को किसी प्रकार की अड़चन या बाधा नहीं होती, वैसे ही सिद्धों के विषय में भी समझना चाहिए। यहाँ भी १५ उपद्वार पहले की तरह जानें। (५) कालद्वार जिन क्षेत्रों में से एक समय में १०८ सिद्ध हो सकते हैं, वहाँ से निरन्तर आठ समय तक सिद्ध हों, जिस क्षेत्र से १० या २० सिद्ध हो सकते हैं, वहाँ चार समय तक निरन्तर सिद्ध हों, जहां से २,३,४ सिद्ध हो सकते हैं, वहाँ दो समय तक निरन्तर सिद्ध हों। इसमें भी क्षेत्रादि उपद्वार घटाते हैं (१) क्षेत्रद्वार—एक समय में १५ कर्मभूमियों में १०८ उत्कृष्ट सिद्ध हो सकते हैं, वहाँ अन्तर रहित आठ समय तक सिद्ध हो सकते हैं। अकर्मभूमि तथा अधोलोक में चार समय तक, नन्दन-वन, पाण्डुक-वन और लवण-समुद्र में निरंतर दो समय तक और ऊर्ध्वलोक में निरंतर चार समय तक सिद्ध हो सकते हैं। (२) कालद्वार प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के तीसरे, चौथे आरे में निरंतर आठआठ समय तक और शेष आरों में ४-४ समय तक निरंतर सिद्ध हो सकते हैं। (३) गतिद्वार—देवगति से आये हुए उत्कृष्ट आठ समय तक, शेष तीन गतियों में चारचार समय तक निरंतर सिद्ध हो सकते हैं। . (४) वेदद्वार—जो पूर्वजन्म में पुरुष थे और इस भव में भी पुरुष हों, वे उत्कृष्ट ८ समय तक और शेष भंगों वाले ४ चार समय तक निरंतर सिद्ध हो सकते हैं। (५) तीर्थद्वार किसी भी तीर्थंकर के शासन में उत्कृष्ट ८ समय तक तथा पुरुष तीर्थंकर और स्त्री तीर्थंकर निरंतर दो समय तक सिद्ध हो सकते हैं, अधिक नहीं। (.६) लिङ्गद्वार स्वलिङ्ग में आठ समय तक, अन्य लिङ्ग में ४ समय तक, गृहलिंग में निरंतर दो समय तक सिद्ध हो सकते हैं। (७) चारित्रद्वार जिन्होंने क्रमशः पांचों ही चारित्रों का पालन किया हो, वे चार समय
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy